August 31, 2011

Jeep, छोटी SUV और उनका पोटेंशियल



गाड़ियों की भी अपनी पर्सनैलिटी होती है । फ़ैमिली कार, चुलबुली कार, शरीफ़ सवारी, सुशील या दबंग गाड़ी । जैसे बुलेट और जीप को देखकर दबंग पर्सनैलिटी वाली फीलिंग आती है। बचपन में जब गाड़ियों के बारे में जाना था तो मुहल्ले के भाई लोग समझाते थे कि कार तो बड़ी बोरिंग चीज़ है, क्योंकि वो तो सिर्फ़ फ़ैमिली के लिए ख़रीदी जाती है, असल मज़ा तो जीप में आता है । असल मर्दों की तो सवारी वही है । और ऊपर से उसे लेकर कहीं भी चले जाओ।
ये गाड़ियां जिन्हें जीप कहते हैं वो हमेशा से बहुत ही दिलचस्प सवारी रही हैं । जैसे इनका नाम, जीप का मतलब या फ़ुल फ़ॉर्म दरअसल है क्या ...इस पर कोई भी कहानी ठोस नहीं कही जा सकती ...जिस डिज़ाइन की जीप दुनिया भर के कई देशो में अब तक दिख रही हैं उसे किसने तैयार किया था उस पर भी काफ़ी विवाद रहा है।  द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सेना के इस्तेमाल के लिए बनी इस गाड़ी को बनाने वाली की कंपनियां थीं और वो भी इस कनफ़्यूज़न की वजह रही है।  और अब तो हालत कुछ और ही है, जीप दरअसल एक अलग गाड़ी ब्रांड ही है । ग्रैंड चेरोकी की जीप के नाम से एसयूवी रेंज है।
लेकिन हम जानते हैं इन जीप को महिंद्रा जीप के नाम से। जिनकी शुरूआत इन जीप को भारत में असेंबल करने से हुई थी। और उन्हीं महिंद्रा जीप को हम सभी याद करते हैं, कभी ना कभी चला चुके हैं ।
हाल फि़लहाल में महिंद्रा जीप के नाम पर मार्शल या कमांडर ज़्यादा देखी जा रही हैं। शायद इसलिए भी क्योंकि महिंद्रा एंड महिंद्रा अपनी स्कोर्पियो और बाकी ग्लोबल प्रोडक्ट के ऊपर ज़्यादा ध्यान दे रही थी और आमतौर पर सवारी लाने ले जाने के लिए गाड़ियां तरजीह पा रही थीं। लेकिन बहुत दिनों के बाद एक शुद्ध लाइफ़स्टाइल एसयूवी आई है। महिंद्रा की थार ।

भारत के थार मरुस्थल के ऊपर नाम रखने का एक मतलब तो यही है कि कंपनी बता रही है कि ये स्पोर्ट्स यूटिलिटी वेह्किल किसी भी तरीके के रास्ते पर जा सकती है। दिल्ली में महिंद्रा थार की एक्स शोरूम क़ीमत 6 लाख रु है। जो शौकीनों के लिए ज़्यादा नहीं है। चारों ओर से खुली बनावट के साथ खुले आसमान के नीचे ड्राइविंग का मज़ा लेने के लिए इसे डिज़ाइन किया गया है।
आगे दो सीटें और पीछे सीट की दो क़तार, आमने सामने, बेंच की तरह जैसे जीपों में होती रही है। अंदर बहुत ही बेसिक बनावट जो बहुत आकर्षक नहीं कही जाएगी। लेकिन जो काम इ स बार महिंद्रा के जीप में हुआ है वो है इसका दमदार ढाई लीटर या कहें 2500 सीसी इंजिन । तेज़ तर्रार और स्मूद इंजिन जो थार को बहुत आसानी के किसी भी तरीके के रास्ते पर जाने में मदद देता है।
बहुत दिनों बाद मैंने इस तरह की छोटी एसयूवी चलाई और लगा कि इस सेगमेंट में गुंजाइश कितनी ज़्यादा है और कंपनियां अभी भी कितना डरी हुई हैं। मारुति सुज़ुकी अगर अपनी जिप्सी को सुधार कर उतार दे तो ना जाने कितने फैन्स हाथों हाथ ले उस प्यारी सवारी को। जैसे महिंद्रा थार को ही लें तो उसी के अंदर के डिज़ाइन, बनावट और सुविधाओं को अगर थोड़ा बढ़ा दें और आम 6 लाख की कारों की तरह वो लगे साथ में थोड़ी प्रैक्टिकल बन जाए तो एक नए तरीके के सेगमेंट को फिर से उभरते जन्म लेते देख सकते हैं।

(प्रभात ख़बर में प्रकाशित )

August 28, 2011

अपने-अपने करप्शन- WHAT NEXT !

पिछले हफ़्ते की ही घटना है। रविवार का दिन था। बाज़ार से कुछ चिंटू शॉपिंग यानि छोटी-मोटी रोज़मर्रा सामान की ख़रीददारी करके लौट रहा था। रेडलाइट पर गाड़ी रुकी थी। सामने चार-पांच कारें थीं। लाइट हरी हुई और सभी कारें हिलना शुरू हुई। कि कारों के कंधों के बीच से देखा चौराहे के बीचोबीच एकाएक कुछ चीज़ उछली, जैसे तेज़ भागती ट्रक से कुछ बोरी निकल कर गिरी हो। लेकिन सामने से कारों की भीड़ हटी तो देखा कि एक आदमी गिरा हुआ है। सामने एक टाटा इंजीका खड़ी है। और उससे दूर छिटकी एक बाइक सड़क पर लेटी हुई है। मैंने चौराहा क्रॉस किया, गाड़ी किनारे लगा, उस इंसान को उठाने गया, देखा कि लोग जमा हो गए हैं-उसे उठा रहे हैं, जिस कार से टक्कर लगी थी उसी में बिठा रहे हैं। तो उसकी बाइक को उठाकर किनारे लगा, लॉक कर दिया । और फिर चाभी देने कार के पास गया। अदंर ड्राइवर सीट पर नज़र गई तो दिमाग़ में तुरंत एक कमेंट आया-- 'इसीलिए'  । और जैसे मैं वापस अपनी गाड़ी के ओर बढ़ा, वैसे ही ख़ुद पर ग्लानि भी होती गई। दरअसल । उस ड्राइवर सीट पर एक महिला थी, और उसे देखते ही मन ने मान लिया कि ज़्यादा चांस यही कि ग़लती उसी की होगी। जबकि मुझे ये भी नहीं पता कि किसने रेडलाइट जंप किया था । किसने ब्रेक नहीं मारा और कौन ज़रूरत से ज़्यादा रफ़्तार में था। आजकल हो कुछ ऐसा ही गया है। हर दिन लोगों से ये सब सुनता रहता हूं- "मैं तो महिला ड्राइवरों से बच के चलता हूं", "किसी बुज़ुर्ग को ड्राइव करते देख मैं पहले ही किनारे हो जाता हूं","मैं तो तीन लोगों से बच के गाड़ी चलाता हूं- लेडी ड्राइवर, बूढ़ों और पंजाबी ड्राइवरों से"। तो इस तरह की लिस्ट में और भी ड्राइवरों का ज़िक्र आता रहता है। लेकिन हर स्टेटमेंट एक अजीब पूर्वाग्रह, अविश्वास की बात करता है। कुल मिलाकर भारतीय सड़कों पर ड्राइविंग की जो ख़ामियां, जो सब में हैं , उन्हें ये सीमित कर देता है कुछ ड्राइवरों पर। और ध्यान से देखें तो इस अविश्वास की जड़ में हमारा सिस्टम है। दरअसल हमारी सरकारों ने हमें एक बुरा नागरिक, क़ानून तोड़ने वाला-सभी पर संदेह करने वाला इंसान बना दिया है। दरअसल हो ये गया है कि भारतीय सरकार ने एक सुव्यवस्थित व्यवस्था के तहत बच्चों के हाथ में पिस्तौल दे दिया है और ये भी नहीं समझाया है कि गोली चल जाए तो जान जा सकती है। पिस्तौल से मेरा मतलब है ड्राइविंग लाइसेंस ।
वही लाइसेंस जिसे विदेशों में पाने के लिए वहां के लोग, सालों-साल टेस्ट देते रहते हैं। अमेरिका में ड्राइविंग टेस्ट में दो-चार बार फ़ेल करना आम है। एक इंसान ने तो पहली बार लाइसेंस टेस्ट पास किया जब वो रिटायर हो चुका था। वहीं दुनिया के बाकी देशों में लाइसेंस का एक सोचा-समझा-सलीकेदार सिस्टम है। ना सिर्फ़ लाइसेंस पाना मुश्किल है, बल्कि पांच साल बाद रिन्यू कराने के लिए फिर से टेस्ट भी देना पड़ता है। लगता है वहां पर जान की क़ीमत है। जो चला रहा है उसकी जान और जो गाड़ी के सामने आए उसकी जान। हम लोगों ने शरीर को काफ़ी सीरियसली वस्त्र समझ लिया है। ना अपनी जान की क़ीमत और ना सामने वाले की।

सबको पता है लेकिन कोई ध्यान नहीं देता, ऐसा भ्रष्टाचार है कि अण्णा की भी नज़र ना पड़े। मेरे कहने का मतलब ये नहीं कि साल भर में इसी सरकारी उदासीनता की वजह से एक लाख 20 हज़ार लोग भारत की सड़कों पर मरते हैं। लेकिन उसका कोई ना कोई हिस्सा ज़रूर...या उसके अलावा कई छोटे बड़े सड़क हादसे, जिनमें जान नहीं जाती है, उनके पीछे ज़रूर है भारत में ड्राइविंग लाइसेंस माफ़िया ।
जीहां, रो़ड ऐक्सिडेंट में मौत के मामले में भारत दुनिया में नंबर वन है, चीन से भी आगे। लेकिन आज मैं उन मौत के बारे में नहीं बात करना चाह रहा था, बताना चाह रहा था कि सड़कों पर चलना-चलाना कितना रफ़ हो गया है। हर दिन आपको कोई ना कोई मिलेगा ही जो आप पर आंख तरेरेगा। बिना मतलब इतना फ्रिक्शन हो गया है।
हम सबके पास कोई ना कोई कहानी ज़रूर होती है कि कैसे हमने दो सौ एक्स्ट्रा देकर लाइसेंस बनवाया। कैसे दलालों से भिड़े थे या अप्रोच लगवाया था । और यही वजह है कि सभी को लगता है दूसरा फ़र्ज़ी लाइसेंस लिए हैंडिल पकड़ा हुआ है, या दलाल को पैसे देकर  स्टीयरिंग पकड़ा है। और इसीलिए हर दूसरे को हम घटिया ड्राइवर समझने लगे हैं। ब्रेक पर पैर लगाते ही हॉर्न बजाने लगते हैं। अगर निकलने के लिए जगह देने में देर की , तो तुरंत गाड़ी बराबर में लाकर, नज़रें तरेरने में वक्त लगाएंगे। आपकी इज़्ज़्त में कसीदे पढ़ेंगे जिसे आसानी से हम समझ सकते हैं, उसी तरह पढ़ कर जैसे क्रिकेटरों के होठ की हरकत देखकर हम पढ़ लेते हैं कि अपने आउट होने को उन्होंने कितने संभ्रांत तरीके से स्वीकारा है। और अगर उम्र थोड़ी कम हो, हॉलीवुडी फ़िल्में ज़्यादा देखते हों तो फिर गाड़ी चलाने के बीच एक हाथ फ्री करके बीच वाली उंगली आपको दिखाएंगे।   या फिर ये जांच कर कि सामने वाला मेरे से ज़्यादा बलिष्ठ तो नहीं, और अगर नहीं लग रहा है तो फिर शीशा खोल के उसके मुंह पर , जीवन से तमाम दर्शन छोटे-छोटे शब्दों में उगल देते हैं।
गाहे-बगाहे ऐसी ख़बरें आप देखते रहते हैं जैसे हाल में लोगों को लाइसेंस मिलने का ख़बर आई  है, जो विकलांग हैं। एक ही इंसान के नाम पर दो लाइसेंस, मंत्री के नाम पर, प्रधानमंत्री के नाम पर भी । और ये सब जब सड़क पर उतरते हैं, बिना डिसिप्लिन समझे, बिना गंभीरता को समझे तो फिर हादसे होते हैं, छोटे-बड़े जैसे भी, चाहे गाड़ी से बाइक टकराए या एक ड्राइवर से दूसरा । भ्रष्टाचार के इस सोशल इफ़ेक्ट के बारे में सरकार नहीं सोच रही। हर इंसान से दो सौ-चार सौ कमाने वाली अरबों की लाइसेंस इंडस्ट्री के एक सामाजित पतन को लूब्रिकेट कर रही है, ये सरकार का सरदर्द नहीं। कुल मिलाकर दुख यही कि हमें एक और अनचाही वजह मिल रही है, बुरा इंसान बनने की।
(प्रभात ख़बर में प्रकाशित)

August 27, 2011

कैसे करें धरती को रीचार्ज



बगल की सीट पर बैठी मां कह रही थी ''पिछले दो-तीन सालों में ही इतनी गाड़ियां बढ़ गई हैं, मालूम नहीं आगे क्या होगा। ये सब तुम्हारे प्रोग्राम की वजह से हुआ है, सब देखदेखकर गाड़ी ख़रीद रहे हैं...'' तो भरी दुपहरी की इस ट्रैफ़िक से परेशान माताजी को कोई वजह नहीं मिली तो लपेट लिया मुझे ही। लेकिन कई बार कई लोगों से मैंने लगभग ऐसी ही आलोचना या ताना ज़रूर सुना है। कि हम हैं पसंद सिर्फ़ तेज़ रफ़्तार, ताक़तवर और तेल पीने वाली गाड़ियां।  और ख़ासकर जो भी पर्यावरण के इलाक़े में काम करने वाले मेरे जानकार हैं,या फिर कई नवपरिचित, जो ग्लोबल वार्मिंग से चिंतित हैं। ख़ैर । जिनके लिए जवाब कई बार सफ़ाई की शक्ल लेने लगता है लेकिन अब लगता है कि तस्वीर बदलने वाली है।

दरअसल अभी तक केवल भारत ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ईको फ्रेंडली गाड़ियों के दो पहलू पर नज़र जाती रही है। एक तो उन्हें एक कॉम्प्रमाइज़ के तौर पर देखा जाता था, समझौते के तौर पर। अगर आप पर्यावरण के बारे में फ़िक्रमंद हैं तो फिर आपको ईको-फ्रेंडली कार ख़रीदनी चाहिए, जिसके लिए ना सिर्फ़ आपको आम कारों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा क़ीमत चुकानी होगी, साथ में वो कम ताक़तवर भी होगी।
और ये उदाहरण केवल भारत का ही नहीं रहा। जहां पर रेवा बनती रही है। जो छोटी है, मंहगी है और हाल हाल तक नेटवर्क भी बहुत तगड़ा नहीं रहा। यही नहीं भारत के अलावा भी ये कई देशों में बिकती थी लेकिन अब यूके में इसकी बिक्री बंद है। वहीं ईको फ्रेंडली के नाम पर दो जापानी कंपनियों हौंडा और टोयोटा ने हाइब्रिड कारों को भारत में उतारा तो लेकिन क़ीमत ऐसी रही जिसे देखकर ग्लोबल की जगह मगज़-वार्मिंग हो जाए।
ख़ैर आज की जो सच्चाई है उससे भी रूबरू हो जाते हैं। आज पर्यावरण पर लोगों की चिंता कहीं ज़्यादा बढ़ चुकी है। लोग जागरुक हो चुके हैं और साथ में प्रकृति के गुस्से को कहीं नज़दीक से देख पा रहे हैं, चाहे वो सुनामी हो, ज्वालामुखी हो या फिर धरती के तापमान में बढ़ोत्तरी । ऐसे में दुनिया वाले ये तो समझ ही रहे हैं कि अब नहीं तो फिर कभी नहीं। कार कंपनियां भी ये सच्चाई समझ चुकी हैं। और इसीलिए हम आने वाले कुछ सालों में ढेरों ईको-फ्रेंडली गाड़ियां देखने वाले हैं। वो कारें जो केवल बिजली से चलेगी, वो जो बिजली और तेल से चलेगी और वो भी जो चलेगी तो पारंपरिक ईंधन से ही लेकिन ढेर सारा माइलेज देगी।

लेकिन फ़िलहाल केवल ईको फ्रेडली गाड़ियों की बात करें तो कुछेक चुनिंदा कारों का ज़िक्र मैं ज़रूर करना चाहूंगा। जिनमें से एक निसान की लीफ़ है। ये एक ऐसी इलेक्ट्रिक कार है जो बड़े पैमाने पर बाज़ार में उतरी है। अमेरिका, -जापान और यूरोप में भी। और ख़ास बात ये कि लगभग आम कारों जैसे इस मॉडल की बैट्री एक चार्ज में लगभग 175 किमी की रेंज का वायदा करती है । यानि पहले के 80 किमी के मुक़ाबले ये एक बड़ी उपलब्धि है। और पेट्रोल से तुलना पर इसकी माइलेज 40 किमीप्रतिलीटर से ऊपर आती है।

वैसे ही एक समय में इलेक्ट्रिक कारों को ख़त्म करने के आरोप को झेलने वाली जेनरल मोटर्स फिर से भरोसा कर रही है एक हाइब्रिड इलेक्ट्रिक कार पर। इस कार का नाम है वोल्ट। 90 के दशक में जेनरल मोटर्स ने भी इलेक्ट्रिक कारें बनाई थी लेकिन फिर उस प्रोजेक्ट को बीच में ही छोड़ दिया गया था। अब रिसेशन के बाद वोल्ट में शेवरले और जेनरल मोटर्स को अपनी भविष्य नज़र आ रहा है। इस कार की भी बिक्री चालू हो चुकी है।
एक और अहम घटना इसी से जुड़ी मुझे लगती है वो है पोर्शे की जीटी 3 एस। ये एक ऐसी हाइब्रिड होगी जो असल स्पोर्ट्स कारों को मात देगी। हालांकि कई इलेक्ट्रिक स्पोर्ट्स कौंसेप्ट और भी पेश हुए हैं ग्लोबल मार्केट में। जैसे निसान की ही ईएस फ़्लो है, जो स्पोर्ट्स कारों की तरह 5 सेकेंड में 100 की रफ़्तार पकड़ लेती है। लेकिन पोर्शे की तरफ़ से ऐसी कोशिश एक बयान है कि कैसे आने वाले वक़्त में घोर स्पोर्ट्सकार प्रेमी भी ईकोफ़्रेंडली मोड में जाने वाले हैं।
इसके अलावा आपको शायद याद हो कि कई मोटरस्पोर्ट्स ईवेंट में अब बायो-फ़्यूल का इस्तेमाल होने लगा है। जैसे मुझे याद है कि फ़ोक्सवागन की एक रेसिंग सीरीज़ है विदेशों में , शिरोको कप। जिसमें फ़ोक्सवागन शिरोको कारें भागती हैं, जैसे भारत में पोलो कप है । तो दो साल पहले जब पोलो कप का पहला नज़ारा देखने मैं पहुंचा था तो वहां पर कंपनी ने एक बहुत ही दिलचस्प पहल के बारे में भी ऐलान किया था। और वो था बायोगैस पर शिरोको कप। आमतौर पर मोटरस्पोर्ट्स को प्रदूषण फैलाने वाला खेल माना जाता है। लेकिन फोक्सवागन के इंजीनियरों नें विकसित कर लिया था वो रेसिंग इंजिन जो भाग सके बायो-गैस पर। जैसे भारत में बायोगैस से स्ट्रीटलाइट्स जलते हैं।
तो अभी तक ईंको फ्रेंडली कारें पेज थ्री डिनर के दौरान बातचीत के  लिए अच्छा टॉपिक होती रही हैं, अगर आपके पास है तो अख़बारों के सप्लीमेंट में अपनी फ़ोटो छपवाने के लिए बड़ी काम की होती । यानि एक स्टेटमेंट के तौर पर। लेकिन अब हाल फ़िलहाल में रिसेशन, तेल के क़ीमतों और ग्लोबल वार्मिंग को देखते हुए लगभग सभी बड़ी ग्लोबल कार कंपनियां बनाने में लगी हैं एक से एक ईको फ्रेंडली कारें। और सबसे दिलचस्प बात ये कि इन कारों की अहमियत सभी समझ रहे हैं। और लग रहा है कि आने वाला कल थोड़ा बेहतर औऱ साफ़ होगा।
(प्रभात ख़बर में प्रकाशित)

August 24, 2011

अण्णा के टॉपिक पर मुझे भी लिखना है - पार्ट-2 : गांधी की फ्रेंचाइज़ी


एक और मुद्दा जिसके ऊपर बहुत से फ़ैबइंडिया गांधीवादी बहस कर रहे हैं वो है अण्णा के गांधी की समझ । जो गांधी को एक इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी की तरह देखते हैं, कि गांधी सिर्फ़ उन्हीं के हैं । कांग्रेस जिसने गांधी को जनता के लिए झुनझुना बना कर रख दिया, बहकाने के लिए, दीवारों पर टांग कर गांधी की सोच को चुनवा ही दिया, उसे तकलीफ़ हो रही है कि कोई और क्यों गांधी की बात करे। कांग्रेसी बड़े-बड़े प्रेस कांफ़्रेस में सवाल उठा रही है कि अण्णा का तरीका गांधीवादी नहीं है। लेकिन विडंबना ये कि उन नेताओं ने उस गांधी को कभी जीया ही नहीं वो अब डिसाइड कर रहे हैं कि किसका रास्ता सही है??

तो गांधी विचारधारा की फ्रेंचाइज़ी लिए कई ज्ञानियों ने बड़ी फटीचर व्याख्या की है अण्णा के गांधीगिरी की। तमाम बाईट और इंटर्व्यू टीवी अख़बारों में दलीलें आ रही हैं इस बारे में। गांधी ने कुछ बातें सिखाई थी, अपने जीवन को एक ख़ास तरीके से जिया था। लेकिन वो सोच और फलसफ़ा कोई मैक्डोनल्ड का बर्गर तो है नहीं कि दुनिया के हर फ्रेंचाईज़ी में एक ही स्वाद वाला बर्गर बनेगा। गांधी तो सबके लिए हैं और सब अपनी समझ, अपनी दर्शन के हिसाब से गांधी को जीता है।  मुन्ना और सर्किट के गांधी से अण्णा के गांधी की लड़ाई नहीं हो सकती है ना ही शेख सराय के आरटीओ में टंगे गांधी से । अब अण्णा ने कुछ पढ़ा, कुछ जाना और जितना उतार सकते थे अपनी ज़िंदगी में उतारा । बाकियों को क्यों पेटदर्द हो रहा है ये समझ में नहीं आता। कांग्रेसी और बाकी पार्टी वाले तो एक तरफ़ अरुंधती रॉय भी आज की डेट में गांधीवाद पर स्थापना दे रही हैं। मतलब आपकी विचारधारा वामपंथी है तो अचानक जेट प्रिविलेज कार्ड की माफ़िक आप ऑटोमैटिक अपग्रेड के हक़दार होते हैं, कैटल क्लास से इंटेलेक्चुअल क्लास में। जिस क्लास में आपको पर्फ़्यूम की छोटी बोतल, टूथ ब्रश और एक लाइसेंस दिया जाता है । जिसमें लिखा होता है कि आप हर मुद्दे पर बोल सकते हैं और माओवाद से लेकर गांधीवाद तक के मुद्दे पर अंतिम सत्य आपकी मुंह से ही निकलेगा।
जब मैंने ये लिखा कि ना जाने कितने कीबोर्ड घिस गए होंगे अण्णा मूवमेंट के ऊपर अपनी राय लिख-लिख कर तो उसकी भी कड़ी प्रतिक्रिया कुछ मिली थी। लेकिन ये ज़रूर लगा कि इस मूवमेंट ने कई लोगों की लाइन तय करने में मदद दी है। कई ग़ैरज़रूरी विचारधारा की पोटली खुल गई है, ग़ैरज़रूरी तर्क-कुतर्क उसमें से गिर गए हैं और सिर्फ़ काम की दो चार बातें रह गई हैं। लेकिन जो काम इसने किया वो है भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ डिबेट। इतने सालों बाद लोकसभा औऱ राज्यसभा दोनों ही जगहों पर करप्शन के ऊपर बहस चल रही थी। जिस संसद के ख़िलाफ़ होने का आरोप लग रहा है हज़ारे पर उसी संसद को उसका काम करने पर मजबूर किया देश भर में उठी एक आवाज़ ने। और ये बहस सिर्फ संसद तक नहीं रही ।  एक सहयोगी पत्रकार मेरे सामने ए राजा की वकालत कर रहे थे कि उसने आम लोगों यानि टैक्सपैयर्स का पैसा थोड़े ही ना ग़बन किया है, 1100 करोड़ के ढेर पर बैठ कर बाबा  विदेश में जमा भारतीय पैसे को वापस लाने की मांग कर रहे थे तब मुझे लग रहा था कि क्या भ्रष्टाचार सिर्फ़ फ़ेसबुक टॉपिक  रह गया है।
आजिजपना साफ़ दिख रहा है अब जनता में, लाख से करोड़ से अरब और अब खरबों में जाते घपलों की खबरों से, नेताओं के दोहरेपन से, बिकी हुई ख़ुशफ़हम और दलाल मीडिया से, शासकों के घमंड से । सालों से ये भाव चारो ओर दिख रहा था, कि ये सब तो चलता है और ऐसे ही चलता रहेगा । हाल के कई चुनावों में नेताओं ने साफ़ कहा कि भ्रष्टाचार अब कोई मुद्दा नहीं है । और आप ये सोचें कि कैसे चुनावी मुद्दा समाज की भलाई से ना निर्धारित होकर ऐसी स्थानीय खुदरा और टैबलायड वजहों से निर्धारित हो रहा है जैसे 4-0 की हार के बाद चर्चा ये हो रही हो कि धोनी को अपनी जर्सी का नंबर बदलना चाहिए कि नहीं। और सबसे दिलचस्प बात ये थी कि अगर कोई भ्रष्टाचार या करप्शन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए भी तो वीपी सिंह की तरह उसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था, बल्कि ऐसी नज़रों से देखा जा रहा था कि कहां स्लिम फ़िटिंग जींस के ज़माने में बैगी पैंट पहन कर आ गया।
ख़ैर अपने तात्कालिक स्वार्थ, राजनीतिक अलाइनमेंट, कुंठा और सिनिसिज़्म में एक पूरा तबका है जो ये नहीं समझने को तैयार है कि दरअसल ये मूवमेंट क्या कर रहा है। वो हिंदुस्तानियों को सड़क पर उतरने के लिए तैयार कर रहा है...वो भी बिना हथियार उठाए, बिना बसों को जलाए। जो अगर नेताओं की बेईमानी से गुस्सा सकता है तो चुरूट लगाए छद्म बुद्धिजीवियों को भी नहीं छोड़ेगा। शुक्र मनाएं बस कि वो रास्ता अभी गांधी वाला है।

August 23, 2011

ME TOO....अण्णा पर मुझे भी लिखना है !! - पार्ट-1


जॉर्ज बुश ने कह दिया था कि या तो आप उनके साथ हैं या हमारे साथ, इसके अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा था 9-11 के बाद....कुछ ऐसा ही माहौल हो गया है आज अण्णा के घनघोर समर्थकों के बीच, जब आपकी निरपेक्ष राय भी आपको ख़िलाफ़ खेमा का बना देती है, कई गरियाने लगते हैं। कई फ़्लाई-बाई-नाइट खुदरे घनघोर आलोचकों  की बातें पढ़कर, सुनकर, लगेगा कि अण्णा के ऊपर एनैलिसिस के लिए कमिटी बन गई है, लेकिन ऐसे थिंकटैंक के साथ जो दरअसल एक टंकी है जहां पर जमा विचारों में  मलेरिया और डेंगू के मच्छर पनपते मिलेंगे। अण्णा को मिल रहे व्यापक (संख्या के बारे में मतभेद हो सकते हैं) समर्थन को कई पचा नहीं पा रहे, कुछ तो हर भीड़ को लाखों में गिनवा रहे हैं, कई उस भीड़ की आर्थिक-सामाजिक-जातीय विवेचना-मीमांसा में लगे हैं, कुछ अपने बॉस को नारे के टोन में जवाब दे रहे होंगे । कुछेक की दुकान वैसे चल निकली है जैसे शादियों के बाहर फ्रीलांसर पान-बीड़ी वाले बैठते हैं। स्टेटस अपडेट से लेकर प्रिंट आर्टिकल से लेकर टीवी स्टूडियो तक, अण्णा से जुड़ी सभी सेवाएं उपलब्ध हैं । तो अभी तक मुझे समर्थन में कई जगह अतिभावुकता और विरोध में वैचारिक घपला तो लग ही रहा है।
अचानक अरुणा रॉय पहुंची हैं टीवी चैनलों की तरह लेकर एक एक्सक्लूसिव लोकपाल बिल, सिर्फ़ इसी चैनल पर बना ये ख़ास लोकपाल बिल। डेल्ही बेली में जैसे आमिर ख़ान आया हो...अरुंधती रॉय भी अण्णा के ख़िलाफ़ हैं, सुना है । हेडर पढ़ा कहीं पर उनके ज्ञानदर्शन का, कि अण्णा का रास्ता गांधी वाला नहीं है । ऊपर से कई साइबर विचारक और टीवी डिस्कशन में बुलाए जाने वाले तथाकथित दलित नेता इसे दलित विरोधी आंदोलन कह रहे हैं , जिसे साबित करने के लिए उनके पास कई तर्क हैं, कैल्कुलेशन हैं। कई मूर्धन्य और धन्य पत्रकार भी ये बयान देते सुनाई दे रहे हैं कि कैमरा नहीं लगा होता तो ये आंदोलन नहीं होता।

हाथ में स्कॉच थामे विचारमग्न समाजशास्त्री इसे मिडिल क्लास का आंदोलन कह कर ख़ारिज कर रहे हैं तो बीजेपी बिलबिला रही है, जो काम हमें करना चाहिए था और जिसके काबिल हम रहे नहीं वो काम ये बूढ़ा कर रहा है ।
लेकिन इन सबके बीच एक सर्प्राइज़ पैकेज के तौर पर न्यूट्रल वाले खेमे में दीख रहा है एक इंसान, जिसे रहना नहीं चाहिए था। अगर कल के प्रधानमंत्री के तौर पर राहुल गांधी को पेश कर रही है कांग्रेस तो क्यों नहीं ये युवराज अपना मुंह खोल रहे। क्या ये गरिमा के ख़िलाफ़ है, रणनीति के ख़िलाफ़ या फिर माताजी का इंतज़ार है। जब कांग्रेस के नेतृत्त्व वाली इस सरकार को सबसे भ्रष्ट सरकार का नाम दिया जा रहा है, हज़ारों करोड़ों के घोटाले लोगों के मन में ये सवाल उठा रहे हैं कि क्या वाकई हमारा देश इतना ग़रीब है कि देश की एक तिहाई से ज़्यादा आबादी बीपीएल होनी चाहिए। जब सवाल ऐसे हों, माहौल ऐसा हो तो फिर सिर्फ़ भट्टा-परसौल पर बयान देने का कोई अर्थ नहीं होता है ना क्योंकि पुणे में पुलिस फ़ायरिंग उन्हीं बयानों को खोखला साबित कर देती है।
ख़ैर...कमिंग बैक टू क्रिटिक्स...क्या मतलब कहें इसका कि मेरे पास लोकपाल बिल का मसौदा भी था जो ज्यादा संतुलित है। अरुणा राय कहती हैं कि सरकार का बिल सुपरवीक है तो अन्ना का सुपरपावरफुल, दोनों ही ख़तरनाक। तो सवाल यही उठता है कि पहले क्यों नहीं आए आप सामने, क्यों नहीं अण्णा और सिविल सोसाइटी का शुरू से विरोध किया ? क्यों नहीं समझी अपनी ज़िम्मेदारी जनता के प्रति कि अगर वाकई जनलोकपाल बिल इतना ही ख़तरनाक है जितना आप बता रही हैं  तो फिर जनता को गुमराह होने से बचाना सही नहीं होता ? क्या भ्रष्टाचार वाकई इतना लोकल और टुच्चा मुद्दा है कि भूल गए थे कि एक मसौदा हमने भी बनाया है और अभी रामलीला मैदान की अतिश्योक्ति वाली कवरेज ने मुझे याद दिलाया है।  वहीं हास्यास्पद बात ये हो गई कि अरुंधती रॉय गांधी के ऊपर स्थापना दे रही हैं, और अचानक गांधीवाद की आरटीओ हो गई हैं कि कौन गांधीवादी है कौन नहीं है ये लाइसेंस वहीं देंगी। आख़िरी बार जब उनकी कहानी पढ़ी थी तो वो बंदूक के रास्ते को सही बताने पर लगी हुई थीं। वहीं कुछ दलित संगठन भी इस मूवमेंट का विरोध करते दिखे टीवी पर। कई मेहमानों की बातें भी सुनी जिनके नाम के आगे दलित नेता लिखा हुआ था। वो तर्क दे रहे थे कि अण्णा हज़ारे से ज़्यादा भीड़ हमने जमा कर रखी है, और अगर अण्णा हज़ारे इतने महान हैं तो दलितों के लिए कुछ क्यों नहीं करते । एक प्रेस कांफ्रेंस में किरण बेदी से एक पत्रकार सवाल पूछते सुने गए कि आप महिला बिल के लिए क्यों नहीं लड़ रहीं हैं, अण्णा और केजरीवाल महिला बिल के लिए आंदोलन क्यों नहीं करते हैं ? तो ऐसे में सवाल ये उठता है कि जो अण्णा को भीड़ की संख्या में मात देने की बात कर रहे थे, क्यों नहीं इससे भी बड़ा आंदोलन खड़ा करते हैं। ख़ुद को वो कितना भी बड़ा दलित नेता बताएं, मायावती से तो बड़े नहीं, जिन्होंने फ़िलहाल अण्णा का समर्थन किया है। या वो पत्रकार जो महिला बिल की कारगरता समझा रहे थे, ऐसे आलोचक क्या मुद्दे को भटका नहीं रहे। क्या समाज में दलितों की हालत में सुधार और महिला बिल का पास किसी के एवज़ में होना चाहिए, भ्रष्टाचार से लड़ने की क़ीमत पर होना चाहिए। जैसे कि प्रधानमंत्री ने कहा कि आर्थिक प्रगति चाहिए तो मंहगाई भी होगी ही ? क्या ऐसा असंभव है कि बदलाव समग्रता में हों। दरअसल ऐसा है नहीं।


एसी कमरों में बैठे, राजनीति और पू्र्वाग्रह के कौंटैक्ट लेंस लगाकर, ब्रॉडबैंड के ज़रिए देश के आमलोगों को देखने वालों का समझ में नहीं आ रहा है कि वाले करप्शन के असली रंग देख नहीं पा रहे । ख़ुद ह्यूमिडिटी और सनबर्न के डर से सड़क पर उतरते नहीं, कोई और उतरे तो ये भी मेरे मार्लबोरो का पैकेट क्यों नहीं ले आते हो। अगर मरीज़ छोड़ने के लिए एंबूलेंस निकाल ही ली है तुमने तो रास्ते में इन बच्चों को भी स्कूल छोड़ आना। और ऐसे विकल्प बहुत ही बकवास लग रहे हैं आज की तस्वीर में।
बजाय इसके की सभी पार्टियां ये समझने की कोशिश करे कि कैसे एक इंसान की आवाज़ पर देश भर में लोग जुटे हैं- वो अण्णा मूवमेंट के छिद्रन्वेषण में लगे हैं । आख़िर क्यों बीजेपी अपोज़िशन कॆ  नाम पर मज़ाक लग रही है, जिस पार्टी का आधा समय अपनी नेता के राजघाट पर नृत्य के लिए सफ़ाई देने में जा रहा था, लेफ़्ट इतनी लेफ़्ट हो गई कि सर्विस लेन में घुस गई। क्यों इन सभी पार्टियों में से आस्था चली गई है आम लोगों की ? क्यों लोग लाफ़्टर चैलेंज में नेताओं के ऊपर आइटम तो देखना चाहते हैं लेकिन असल नेता जब मातम पुर्सी में घर आता है तो मारे गए शख़्स के परिवार वाले उसे पत्थर मारकर भगाते हैं, या गुर्गों के साथ अण्णा के आंदोलन में हिस्सा लेने आता है तो आम जनता द्वारा खदेड़ा जाता है । दरअसल सरकार के मंत्री, उनके चंगू-मंगू और कुछ स्वयंभू चिंटू विचारकों ने इस आंदोलन की सबसे बड़ी ख़ासियत पर से सबका ध्यान हटा दिया है। वो है कलेक्टिव कोशिश । आजतक किसी भी मुद्दे को मध्यम वर्ग को बाहर आते नहीं देखा गया था...जिसके लिए ये गाली खाता था, वैसे अब इस बार बाहर आया है तो भी गाली खा रहा है। लेकिन आगे के लिए ये उम्मीद की जा सकती है मुद्दों पर लोगों का पार्टिसिपेशन बढ़ेगा। सामाजिक सरोकार केवल किताबी बात शायद ना रहे।
तो ऐसे में मैं अपनी बात बताता हूं। मुझे ऐसा नहीं लग रहा कि जनलोकपाल बिल से कुछ क्रांतिकारी होगा। देश की राजनीति इतनी ताक़तवर है कि कैसे भी सांढ़ का बधिया कर सकती है, बैल क्या टट्टू बना सकती है। आरटीआई के ज़रिए देश ने बहुत कुछ हासिल किया है, लेकिन लगातार उसके पंख, पूछ और अब गुर्दे तक काटने की कोशिश की जाती रही है, कितने ही कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। थोड़े वक्त के बाद हो सकता है कि जलोपा बिल में भी कुछ कटिंग शटिंग हो जाए...लेकिन उम्मीद बची हुई है। वो किताब पढ़ी थी टिपिंग प्वाइंट, जिसके बाद से भारत में मैं उस प्वाइंट का इंतज़ार कर रहा हूं ।
मैं इस पूरे मूवमेंट के पक्ष में हूं, टीवी पर देख कर लोगों की तादाद का सही अंदाज़ा लगाना मुश्किल है लेकिन ख़ुश हूं बहुत सारे शहर से कुछ-कुछ लोग आए तो हैं सड़कों पर...उतरकर एक दो-नारे तो लगाए हैं।


August 21, 2011

गाड़ियों का सोशल साइंस


आज आपको बताता हूं, हाल में हुई एक मुलाक़ात के बारे में। जिन्हें पहली बार देखा तो लगा कि किसी कॉलेज का प्रोफ़ेसर आ रहा है। लंबे उलझे बाल और बहुत ही नॉन कॉरपोरेट कपड़े। ख़ासकर यूरोप में, ऊपर से जर्मनी जैसी जगह पर तो बहुत कम ही ऐसे फ़ॉर्मल ईवेंट होते हैं जो सूट-पैंट में ना हों। और ऐसे में मिस्टर मैनकॉव्स्की बहुत ही अलग दीख रहे थे। थे भी अलग । डॉ अलेग्ज़ेंडर मैनकॉव्स्की एक सोशल साइंटिस्ट हैं। पिछले सवा सौ सालों के इतिहास और सामाजिक बदलाव को बहुत ही ध्यान से पढ़ा है इन्होंने। क्योंकि यही वो वक्त है जिसके दौरान सारे बदलावों को देख-परख कर मैनकॉव्स्की भविष्यवाणी करते हैं । ये किसी राशिफल या मौसम की भविष्यवाणी तो नहीं ही करते हैं, ये बताते हैं आने वाले कल के समाज के बारे में और उनमें इस्तेमाल होने वाली कारों के बारे में। दरअसल ये सोशल साइंटिस्ट डेमलर कंपनी के लिए काम करते हैं, यानि मर्सेडीज़ बनाने वाली कंपनी के लिए। वहीं पर ये फ़्यूचरिस्ट हैं।

अब ये जानकारी ही मेरे लिए बहुत दिलचस्प थी। इंजीनियर, डिज़ाइनर, मार्केटिंग वाले लोगों की टीम के बारे में तो बहुत सुन लिया। लेकिन ये पर सुनते ही काफ़ी ख़ास लगा कि सोशल साइंटिस्ट की टीम काम कर रही है एक ऑटोमोबील कंपनी के लिए। टीम जो लगी है दुनिया भर के बदलते सामाजिक समीकरण को रिकॉर्ड करने, समझने औऱ आने वाले दिनों के बारे में भविष्यवाणी करने में।
मैनकॉव्स्की से मेरी मुलाक़ात हुई थी स्टुटगार्ट में, मर्सेडीज़ म्यूज़ियम में । जहां पर पहले हमने दौरा किया म्यूज़ियम का, दुनिया की पहली ऑटोमोबील देखी, 1886 में बनी वो ऑटोमोबील जिसे हल्की नज़र से देखें तो लगेगा कि कोई छोटी बग्घी है, जिसमें फ़िलहाल घोड़ा नहीं लगा है। इस कार के बारे में पढ़ा था, तस्वीरें देखी थीं। म्यूज़ियम के पूरे चक्कर में पिछले सवा सौ सालों में गाड़ियों की दुनिया और दुनिया में गाड़ियां कैसे बदली हैं ये बात थोड़ी समझ में आई।
और उसके बाद हुई इस मुलक़ात ने एक नए पहलू से परिचित करवाया। मैनकॉव्स्की के पास पूरा टाइमलाइन था। बदलते सामाजिक परिवेश के साथ कैसे गाड़ियां बदलीं, दुनिया में जो भी बदलाव आए वो सभी गाड़ियों पर असर छोड़ गए। वैसे यूटोपियनिज़्म, एटॉमिक एज और न्यू यूटोपियनिज़्म जैसे फ़ॉर्मूले दिलचस्प थे। इस बारीक स्टडी से आप इंप्रेस हुए बिना नहीं रहेंगे और इसकी तुलना ज़रूर करेंगे अपने देश से। और मैंने भी किया और पाया कि समाज का असर तो फ़िलहाल गाड़ियों पर कम ही लग रहा है गाड़ियों पर। गाड़ियों का असर समाज पर ज़्यादा लग रहा है। और फिर महसूस हुआ कि क्यों नहीं देश के नेता और ब्यूरोक्रैट सोशल साइंस के ऐसे अंग को अहमियत देते हैं। की जो दिशा दे सके भारतीय ट्रांसपोर्टेंशन को।
एक तरफ़ वेस्ट में ट्रांसपोर्टेशन फ़िलॉसफ़ी का एक अंग हो चुकी है और अपने यहां बिना किसी विज़न के ट्रांसपोर्टेशन बढ़ी जा रही है। सड़कों पर मरने वाले हिंदुस्तानियों की तादाद बढ़ती जा रही है (दुनिया में नंबर एक पर हैं हम), सड़कें असुरक्षित,लोग बेचैन, मानो कोई माई-बाप नहीं। सड़क पर आक्रामकता के लिए दिल्ली बदनाम थी, लेकिन बैंगलौर और मुंबई की भी वही हालत देखी मैंने। चेन्नई का तो पूछिए मत। एक ऑटोवाला, मेरे टैक्सीवाले को ऐसे गालियां दे रहा था कि समझ में नहीं आ रहा था कि वो तमिल बोल रहा है या पंजाबी । वहीं छोटे शहर, जहां लगता है कि ज़िदगी संभल कर चलती है, लोग रिलैक्स होंगे, प्रेशर कम होगा...वहां पर तो हालत और बदतर होती जा रही है। रांची मे मैंने ड्राइव किया, पटना, भुबनेश्वर, पांडिचेरी में गाड़ी चलाई। लुधियाना, जोधपुर में भी। हर जगह गाड़ियों की तादाद ज़्यादा, सड़कें पतली, ट्रैफ़िक रूल्स और सेसं दोनों का अकाल और ऊपर से क़ानून को लागू करनेवाला कोई नहीं। और साफ़ लगता है कि इन सभी शहर की सारी ख़ूबसूरती ख़त्म हो रही है सड़कों पर जाकर। जहां पर हॉर्न और ब्रेक की आवाज़ के बीच लोगों की पहचान पिस रही है।
बिना किसी सोच, विज़न के हर तरफ़-हर तरह की गाड़ियां ठूंस दी गई हैं, रिक्शा साइकिल बसों के साथ, ऑटो को कारों के साथ, ठेलागाड़ी और पैदल को कारों के साथ। सबकुछ गड्डमड्ड। जिसका असर ये हो रहा है हर सुबह सड़कों पर उतरते ही हमारा धीरज चला जाता है तेल लेने, इंसानियत छुप जाती है गाड़ी की बैकसीट पर और हमारा लानत का मशीनगन चालू हो जाता है जो आएं-दाएं-बाएं सबको लानत  भेजना शुरू कर देता है। कुल मिलाकर देश के नेताजन एक ऐसा जेनरेशन तैयार कर रहे हैं जो पहले से कही ज़्यादा कुंठित है, डेल्ही बेली से ज़्यादा गालियां देता है और सड़क पर हर दूसरे इंसान को रेंगने वाला कीड़ा समझता है। कहने का मतलब ये कि आने वाले दिनों में हम हिंदुस्तानियों का बेसिक कैरेक्टर बदलते देख सकेंगे। सुबह शाम सड़कों पर दिखने वाला कैरेक्टर स्थाई हो जाएगा। और मैं चाहता हूं कि जब भी कोई सोशल साइंटिस्ट भारतीय ट्रांसपोर्टेशन पर अपनी पीएचडी कर रहा हो तो मुझसे एक एक दो सवाल ज़रूर पूछे और ऊपर जो मैने बाते लिखीं हैं वो अपने थीसिस में बोल्ड में टाइप करे ।

(डॉ एलैग्ज़ैंडर मैनकॉव्स्की की भूमिका डेमलर कंपनी की फ़्यूचर स्ट्रैटजी से जुड़ी है। आने वाले वक्त में समाज में क्या बदलाव हो सकते हैं, लोगों की ज़रूरतें और पसंद कैसे बदल सकती है, इसकी जानकारी वो कार डिज़ाइनरों के साथ बांटते हैं जो नए टेक्नॉलजी नए फ़ीचर्स के ऊपर काम करते हैं। और तैयार होती हैं कौंसेप्ट कारें। फ़िलहाल मैनकॉव्स्की सबसे ज़्यादा गंभीर हैं फ़्यूल सेल गाड़ियों को लेकर। वो कारें जो हाईड्रोजन जैसे ईंधन से चलेंगी। जर्मनी में सरकार ने भी इसके लिए समर्थन दिया है। कई पंप खोले जाएंगे जहां पर फ़्यूल सेल ग्राहक अपनी कारों में हाइड्रोजन भरवा सकेंगे)

(प्रभात ख़बर में छपी थी कुछ दिनों पहले)

August 20, 2011

इस आवाज़ में दम है...



ऐसी आवाज़ जो मुझे उन सभी शेरों की  दहाड़ की याद दिला रही थी, जो मैंने बचपन से सुनी थी। ऐसी गुर्राहट जो बता रही थी कि मुझे हल्के में मत लेना, क्योंकि अगर मेरा मूड बिगड़ा तो फिर अच्छा नहीं होगा। और ये चेतावनी सबके लिए थी। इसीलिए मैं ऐक्सिलिरेटर को शुरुआत में बहुत संभल कर दबा रहा था, लेकिन ये कार थी ही ऐसी कि ज़रा सा ऐक्सिलिरेटर दबा नहीं कि इसमें लगा ...6 हज़ार सीसी से बड़ा इंजिन गुर्रा उठता था और पास की वादियां थर्रा उठती थीं...मुझे पता चल चुका था कि मैं एक बहुत ही शानदार और जानदार राइड के लिए तैयार था, मैं चला रहा था मर्सेडीज़ एसएलएस एएमजी । 
जर्मनी के शहर स्टुटगार्ट के पास एक छोटा सा शहर है अफ़ाल्टरबाख़ । किसी भी आम जर्मन शहर या कस्बे की तरह एक शांत, साफ़-सुथरी जगह, जिसके चारों ओर की हरी-हरी पहाड़ियां इसे एक ख़ूबसूरत थ्री-डी पोस्टर बना रही थीं।  इसी शांति के बीचो-बीच खड़ा है एक प्लांट, जहां दुनिया में सबसे नामी इंजिनों में से एक एएमजी बनाए जाते हैं।  ये दरअसल मर्सेडीज़ कार कंपनी का ही एक हिस्सा है, और यहीं से तैयार होते हैं वो इंजिन जो मर्सेडीज़ की एएमजी रेंज की कारों में लगाए जाते हैं। जो अपनी तेज़ रफ़्तार के लिए जाने जाते हैं। वैसे इसकी शुरूआत अलग हुई थी, रेसिंग इंजिन बनाने वाली कंपनी के तौर पर जिसे बाद में मर्सेडीज़ ने ख़रीद लिया था। और तब एएमजी का काम सिर्फ़ इंजिन तक ही रहा था। लेकिन एसएलएस के तौर पर एएमजी ने अपनी पहली पूरी कार तैयार की है। 
अफ़ाल्टरबाख़ प्लांट से लेकर मैं एसएलएस को ड्राइव करके स्टुटगार्ट तक लाने वाला था। पहली नज़र में ही ये कार आपको कह देगी कि मैं हूं बहुत ही स्पेशल। सबसे पहले तो इसका वो  दरवाज़ा, जो चिड़िया के पंख की तरह ऊपर की ओर खुलता है, जिसे गलविंग डोर का नाम दिया गया है।  फिर इसमें बैठते ही आपको महसूस होगा कि सीटें कितनी नीचे हैं, छोटी हैं और हां ...सिर्फ़ दो ही सीटें हैं। और ये सब इसलिए कि 571 हॉर्सपावर आपकी कार को भगाना शुरू करे तो कार की पकड़ में, हैंडलिंग में कोई कमी ना रहे ना हो। वैसे केवल इसकी लुक की वजह से भारत में एसएलएस की क़ीमत सवा दो करोड़ के आसपास नहीं है।
ड्राइव की शुरूआत में शहरी सड़कों पर ड्राइव करना काफ़ी मुश्किल रहा, एक तो कार तेज़ रफ़्तार के लिए बनी है और शहर के अंदर 30-40 की स्पीड से जाना था, और ऊपर से दिल्ली की सड़कों पर ड्राइव करने वालों को यूरोप में वैसे भी दिक्कत होगी जहां सड़कें करीना कपूर की कमर जैसी पतली हैं और ऊपर से एसएलएस का आकार मेरे अंदाज़े से ज़्यादा बड़ा था। ख़ैर इस धीमी रफ़्तार का फ़ायदा ये हुआ कि जहां जर्मनी में बड़ी-बड़ी मंहगी कारें आम हैं इस कार को देखकर कई लोग मुस्कुराए, कुछ बच्चे खिलखिलाए। इसके बाद मैं निकला उन मोटरवे पर जहां पर स्पीड लिमिट ज़्यादा थी, 120 के आसपास। और तब मैंने इसके ऐक्सिलिरेटर को दबाना शुरू किया। और यक़ीन मानिए हर बार ऐसे पिकप पकड़ती जो जेट इंजिन की याद दिलाता है। 
दरअसल एसलएस एएमजी की बनाई पहली कार है, जो पहले सिर्फ़ इंजिन के स्पेशलिस्ट थे, ऐसे में इसकी बनावट में सिर्फ़ एक ही बात पर ध्यान दिया गया है, पर्फोर्मेंस। कितनी ताक़तवर बनती है ये, टॉप स्पीड क्या पकड़ पाती है और तेज़ रफ़्तार में हैंडलिंग कैसी होती है। जहां पर ये कार मुझ जैसे ड्राइवर के लिए तो ज़रूरत से ज़्यादा ही थी। रेस ट्रैक पर तो इस चला नहीं रहा था लेकिन लग रहा था कि रेस कार ही चला रहा हूं, कभी भी ताक़त की कोई कमी नहीं लगी, कभी भी ब्रेक कम नहीं पड़ा, जितनी स्पीड में भी इसे घुमावदार रास्तों पर मोड़ा ये चिपक कर चलती रही। 
कुल मिलाकर पहली ड्राइव में एसएलएस ने मेरा दिल ख़ुश कर दिया था। रफ़्तार की वजह से तो ज़ाहिर है, लेकिन फ़ील की वजह से भी। ख़ासकर इसकी आवाज़ एसएलएस की ड्राइव को अलग तजुर्बा बनाती है। जिसका चस्का मुझे लग चुका था। जहां पर स्पीड लिमिट थी वहां पर मैं ख़ूब तेज़ी से ऐक्सिलिरेट करता था और फिर धीमे हो जाता था। 80 से ऊपर नहीं जा सकता तो 0-80 के सफ़र को ज़्यादा रोमांचक बना रहा था। और हर बार ये आवाज़ पूरी वादी में गूंजती थी, या फिर सुरंग में। हर सुरंग से गुज़रने के दौरान मैंने यही किया, बार बार ऐक्सिलिरेटर को दबा कर एसएलएस की गुर्राहट की गूंज सुन रहा था, जो सुरंगों की दीवार से टकराकर वापस आ रही थी । और फिर अगले सुरंग का इंतज़ार करने लगता था। 

((AMG के बॉस से बात करके पता चला कि इन कारों की आवाज़ ही इनकी पहचान है। कंपनी के मुताबिक दूर से ही एएमजी कार को उसकी आवाज़ से पहचाना जा सकता है। और इंजिन की आवाज़ के एक एक पहलू को अपने हिसाब से सेट करने के लिए AMG ने एक टोन स्टूडियो भी तैयार किया हुआ है, जिसका काम सिर्फ़ ये तय करना होता है कि किस इंजिन के एग्ज़ास्ट यानि टेलपाइप से कैसी आवाज़  निकले जो कार की पहचान बने। ))


(थोड़े दिनों पहले ये प्रभात ख़बर में छपी थी )

August 09, 2011

क्या मुमकिन है U-Turn?


अगर मेरे पास पैसे होते, एक बड़ा गेराज होता तो मैं भी शायद एक एंबैसेडर कार ख़रीदता । और सजा कर रखता उसे। सजा के रखता मतलब धांसू कलाकारी होती उस पर, बिल्कुल क्रांतिकारी लुक । हो सकता है कि मैं उसके ऊपर अपने प्यारे फ़िल्मी ऐक्टर की तस्वीरें हाथ से पेंट करवाता, या फिर चटख़ लाल रंग में लपेट कर  सीटें बदलवा कर उसे अंदर से चमकाता, जिसे कहते हैं पॉप आर्ट । ख़ास मौक़ों के लिए होती वो कार, जब मेरा अराइवल होता ऐंबैसेडर पर।  लेकिन वो मेरी दूसरी या तीसरी कार होती। सिर्फ और सिर्फ शौक के लिए। नौस्टेल्जिया की लंबी ड्राइव पर जाने के लिए, भीड़ से अलग दीखने के लिए। प्रैक्टिकल ज़रूरतों के लिए नहीं। प्रैक्टिकल ज़रूरत के लिए मैं जापानी कार रखता । जो माइलेज देती, जिसे चलाने में झंझट नहीं होता...मेंटेन करना आसान होता और जो भरोसेमंद होती। दुख होता है, कि ये सबकुछ एंबैसेडर की ख़ूबियां हो सकती थीं।
एंबैसेडर जीते-जीते ही अतीत बन चुकी है, ज़िंदा ही मरणोपरांत हो गई है। लगता है कि आजकल जो चल रही है वो प्रेत है उस कार की जिसने हम सबके जीवन को कभी ना कभी ज़रूर छुआ होगा। कभी किसी यादगार ड्राइव पर ज़रूर ले गई होगी, या फिर एंबैसेडर में पूरी फ़ैमिली ठूस कर पिकनिक पर ज़रूर गए होंगे। मैं गया था । कभी इसी कार से अपने नेता को उतरते देखा होगा जिस ज़माने में नेता इज़्ज़तदार और इंसान होते थे, कई बार दोनों होते थे । जब सरकारी अफ़सरों के घूस के पैसे गिनते-गिनते नोट गिनने वाली मशीन गर्म नहीं हो जाया करते थे। रूतबा का मतलब इज़्ज़त और ताक़त का मतलब जनाधार था । और देश की ही तरह अपनी तमाम कमियों और खूबियों के साथ इस वक्त की असल निशानी थी एंबैसेडर कार.  लेकिन भारत ने अब तरक्की कर ली है । ज्वाइंट फ़ैमिली को हम सिर्फ़ रात के नौ बजे डिनर के साथ देख सकते हैं। छोटा परिवार सुखी परिवार कहलाता है। आईएएस दंपत्ति इतना घूस कमा रहे हैं कि नोट की गड्डियां बिस्तर बनी हैं। जनता को नेता की पिटाई करने में ज़रा सा भी वक्त नहीं लगता और नेता का रुतबा दबंगई में तब्दील हो चुका है । और उस वक्त  के साथ, उस वक्त की निशानी भी ख़त्म हो गई, एंबैसेडर भी ख़त्म हो गई। अफ़सरों के लिए सरकार एसएक्स 4 ख़रीद रही है, नेता बुलेटप्रूफ़ एंडेवर में घूम रहे हैं। सत्ता के गलियारों से, संसद और सड़क से, लोगों के ज़ेहन से ये कार आउट हो गई है।
कई नए वर्ज़न आए इस कार के लेकिन ऑल्टो और फीगो के ज़माने में, सफ़ारी और एंडेवर के ज़माने में  चुनौती कहीं ज़्यादा बड़ी हो चुकी है। अब एंबैसेडर कार बनाने वाली हिंदुस्तान मोटर्स कह रही है कार को बदला जाएगा। और ट्रैक रिकॉर्ड देखें तो साफ़ लगेगा कि कार में छोटे मोटे कॉस्मेटिक बदलाव होंगे। लेकिन दावा बड़े बदलावों का है।  एक बात तो साफ़ है कि लुक को बदलने से अब कुछ नहीं होगा, इसकी टेक्नॉलजी और बनावट बदलनी होगी। ज़्यादा भरोसेमंद और किफ़ायती बनाना होगा। और वो भी बिना इसके इमेज के साथ खिलवाड़ किए। सब कुछ होने के बावजूद हमारे दिल के कोने में बसी है ये सवारी।
देखते हैं 2012 या 13 में कौन सी एंबैसेडर आएगी, जो नए वक्त के हिंदुस्तान की पहचान बनेगी। या फिर पिटे हुए हीरो की नाकाम वापसी होगी। फ़िलहाल पैसे तो जमा कर ही रहा हूं...देखते हैं ...
(कुछ दिनों पहले प्रभात ख़बर में छपी थी)