September 27, 2011

क्यों बदनाम होती है सिर्फ़ SUPERBIKE ???


न्यूज़ की दुनिया सालों गुज़ारने पर कई विडंबनाएं देखने को मिलती हैं, जिनमें से एक मौत भी है। कई बार ख़बरों की महत्ता तय होती है किसी दुर्घटना में मरने वालों की संख्या से या फिर सवारी से, यानि प्लेन क्रैश प्रायोरिटी, हेलिकॉप्टर क्रैश सेकेंड प्रायोरिटी फिर ट्रेन, बस वगैरह। लेकिन ये कोई थंबरूल नहीं है, परम सत्य नहीं है।
भारत में लगभग सवा लाख लोग अपनी जान सड़कों पर गंवा देते हैं। चलते हुए, साइकिल पर, बाइक पर या कारों में। लेकिन वो सिर्फ आंकड़ों में तब्दील हो जाते हैं, जहां पर किसी इंसान का चेहरा नहीं, कुछ नंबर दिखाई देते हैं। और ये नंबर भी दब जाते हैं अगर किसी प्लेन क्रैश में 6 लोगों के मरने की ख़बर आ जाए। यानि अंत के बाद भी इंसान फंसा रहता है क्लास स्ट्रगल में। यानि ये तो ज़ाहिर सी बात है कि प्लेन में उड़ने वाला कोई ना बैठा बड़ा आदमी ही होगा और लोगों को उसके बारे में जानने में ज़्यादा दिलचस्पी होगी, बजाय उस ऐटलस साइकिल पर चलने वाले अधेड़ आदमी के जो एनएच 24 पर ट्रक के नीचे आ गया है। लेकिन इस विडंबना का वास्ता सिर्फ़ क्लास डिफ़रेंस या समाजशास्त्र से है, ये अधूरी बात है। दरअसल इस दिलचस्पी की एक वजह स्वाभाविक इंसानी साइकोलजी भी है, जिसे सनसनीखेज़ रस कह सकते हैं। जब मौत की वजह से ज़्यादा बड़ा और सनसनीखेज़, मौत का तरीका हो जाता है। वो कितना क्रूर, नाटकीय रहा या वीभत्स रहा ये जानने की दबी सी उत्सुकता भी लोगों को इन ख़बरों की तरफ़ भी खींचती है। भूकंप और बाढ़ में हुई मौत एक त्रासदी होती है, सड़क हादसे किसी आम हिंदुस्तानी के मरने को उसका प्रारब्ध मान लिया जाता है लेकिन एरो शो में पायलट की मौत एक विज़ुअल घटना हो जाती है, अपने मंगेतर के साथ मिलकर एक प्रेमिका द्वारा अपने प्रेमी की हत्या एक ईवेंट बन जाता है। जहां मारे गए नीरज ग्रोवर के मौत के ज़िक्र से ज़्यादा बड़ी जिरह हो जाती है कि प्रेमिका ने उसके शरीर के कितने टुकड़े किए, जिस पर ज़्यादा रौशनी डालने के लिए राम गोपाल वर्मा को फ़िल्म बनानी पड़ती है (जिसका प्रोमो उसी दिन लौंच होता है जिस दिन केस का फ़ैसला आने वाला था)
कुल मिलाकर ऐसा ही कुछ होता है जब कहीं भी कोई सुपरबाइक क्रैश करती है। एक तो आम सोच में सुपरबाइक शब्द ही लार्जर देन लाइफ़ होता है, सुपर मैन की तरह सुपरबाइक। और साथ में उस रफ़्तार पर क्रैश जिसके बारे में ज़्यादातर पॉपूलेशन केवल कल्पना कर सकती है, क्योंकि ज़िदगी भर ज़मीन पर ऐसी रफ़्तार या ऐक्सिलिरेशन तो उन्होंने कभी महसूस नहीं किया होगा। और फिर शुद्ध भारतीय सवाल कि शौक के लिए कोई अपनी जान कैसे जोखिम में डाल सकता है ? हां, ब्लू लाइन के नीचे आना या मुंबई की लोकल से बाहर गिरना, या फिर बिजली से चलने वाली ट्रेन की छत से टपकना तो फिर भी मान्य है। इसीलिए जब सुपरबाइक्स गिरती हैं, सोशियोलॉजिस्ट जग जाते हैं, सेफ़्टी एक्सपर्ट आस्तीन चढ़ा लेते हैं और कंप्यूटर के कीबोर्ड घिसे जाने लगते हैं। बड़ी शिद्दत से एक ही कन्क्लूज़न निकाला जाता है कि सुपरबाइक्स बहुत ख़तरनाक हैं। और इस डिबेट में भी क्लास-चर्चा तो आ ही जाती है, क्योंकि अगर किसी दुपहिए की क़ीमत 12 से 15 लाख की हो तो फिर किसी ना किसी बड़े आदमी के बच्चे ने ही वो बाइक ख़रीदी होगी, ज़ाहिर है ऐसे चुनिंदा शौकीन पैसेवाले ही होंगे। और उस क्लास की रिपोर्टिंग तो लाज़िमी है।
ख़ैर इन ख़बरों पर कवरेज को लेकर जो भी प्रोब्लेम मुझे लगे लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि पूरी हालत बुरी है। सुपरबाइक्स को लेकर हिंदुस्तान में किसी तरीके की कोई जागरुकता नहीं है। और ये सरकार से लेकर आम लोगों तक में है। जिस वजह से बिना जाने-समझे पहले तो सुपरबाइक भारत में लाए गए, फिर बेचे गए और अब आलोचना का शिकार हो रहे हैं। आख़िर क्या कमी रही है अब तक इस तरह के बाइक्स के कल्चर में, जिसे लाइफ़स्टाइल बाइकिंग भी कहते हैं...
सुपरबाइक्स के लिए कोई रेगुलर ट्रेनिंग की व्यवस्था भारत में नहीं है जिससे देश के सभी इलाके के राइडर सीख पाएं, सुपरबाइक चलाना। कुछ कंपनी दे रही हैं, लेकिन ये मोटरसाइकिलें क्रैश-कोर्स से नहीं सीखी जा सकती हैं...
भारत में सेफ़्टी को लेकर अब तक कोई कल्चर नहीं रहा है। दिल्ली में तो हेलमेट को लेकर एक कड़ाई देखी भी गई, देश के बाकी हिस्सों में हेलमेट तभी निकलते हैं जब कड़े ट्रैफिक कमिश्नर की पोस्टिंग होती है। और इन बड़ी बाइक्स के लिए बहुत ज़रूरी, ग्लव्स और राइडिंग गियर को तो भूल जाइए।
मां-बाप क्यों अपने बच्चों को बिना सेफ़्टी का संदेश दिए, मानो वो बच्चों के बंदूक दे रहे हैं, लेकिन ख़तरनाक बात ये कि ये खिलौना वाला नहीं असल गन है। केवल अफ़ोर्ड करना इकलौता क्राइटीरिया नहीं हो सकता है आपके गिफ़्ट के लिए। 

लेकिन इन सबके अलावा एक और मुद्दा है जो सबसे ख़तरनाक है। भारत में जो स्पोर्ट्स बाइक आईं वो सीधे 1000 सीसी वाली आईं। जिनकी आमतौर पर ताक़त 180 हॉर्सपावर के पास होती है। और ये इतनी तेज़ भागती है जिसका सही अंदाज़ा सालों के प्रैक्टिस के बाद ही हो सकता है। सरकार ने दरअसल 800 सीसी से ऊपर की मोटरसाइकिलों पर से कस्टम ड्यूटी कम किय था, अमेरिका को ख़ुश करने के लिए, जिससे हार्ली डेविडसन को भारत में आसान एंट्री मिले। होना ये चाहिए था कि 250 से 400 से 600 सीसी के इंजिन आते जिस पर बाइकर प्रैक्टिस कर पाते। लेकिन हुआ उल्टा पहले हज़ार सीसी की मोटरसाइकिलें आई हैं और बाद में 250 सीसी वाली। और अलग अलग स्टेज की बाइक्स चलाए बिना कई नौजवान सीधे बड़ी सुपरबाइक्स पर चढ़े, क्योंकि ज़्यादातक मां-बाप को भी नहीं पता था कि ये सुपरबाइक्स मज़ेदार तभी होती है, जब आपने इसे चलाना सीखा हो।
दुनिया के कई देशों में लाइसेंस इंजिन की क्षमता के हिसाब से मिलते हैं। यानि हौंडा ऐक्टिवा के लिए अलग लाइसेंस और हौंडा सीबीआर 1000 के लिए अलग लाइसेंस। लेकिन भारत में सरकार ने उन बाइक्स को आने की इजाज़त दे दी है, लेकिन लाइसेंस के सिस्टम में कोई बदलाव नहीं किया है।
कुल मिलाकर आम राइडर से लेकर उनके मां-बाप, बाइक कंपनियां औऱ सरकार सबकी सोच में एक बड़ा छेद है, और जब तक उसे भरा नहीं जाएगा, विरोधाभासों को दूर नहीं किया जाएगा, एक रोमांचक मशीन ग़लत मक़सद के लिए बदनाम होती रहेगी। लेकिन दिलचस्प सच्चाई ये है भी कि ऐसी दमदार मोटरसाइकिलें अपने सबसे एक्सट्रीम अवतार में होती हैं रेसों में। लेकिन मोटो जीपी या मोटरसाइकिल रेसिंग का पूरा पचास साल से ऊपर का इतिहास देखें तो वहां कुल 24-25 लोगों की मौत हुई होगी। जो नंबर के हिसाब से देखें तो बहुत कम है। वैसे भारत में भी नंबर तो बहुत कम हैं, वैसे भी साल में सौ सवा सौ सुपरबाइक बिक्री में क्या संख्या होगी, लेकिन ख़बरें धड़ाधड़ छपती हैं। असल दो सौ या तीन सौ की रफ़्तार पर होने वाली मौत लोगों को ज़्यादा चकित करती है, एक लीटर में सौ किमी चलने वाली मोटरसाइकिलों में लोगों को ग्लैमर नहीं नज़र आता है, और उन पर सवार लोगों का शरीर सिर्फ़ वस्त्र माना जाता है, जो फट सकता है, उनकी आत्मा तो कभी भी नष्ट नहीं हो सकती है। इसीलिए उनके अंत को इग्नोर किया जा सकता है।
*Published

1 comment:

Anonymous said...

Rightly said... As we know, everything should be used in a positive and rite way for its better use and system(government and people mindset) should also be able to accepts that.

Frankly speaking even if we categorize the License providing system on bases of Engine power even than most of those rich people be able to get the license for that. Now a days anyone can get license of any type without any driving test just by some bribe.


True Lier