November 20, 2011

Bajaj Boxer


उलझन तब होती है जब पैमाने बदलने पड़ते हैं। वो पैमाने जो हर हफ़्ते आने वाली कार या मोटरसाइकिलों को परखने के लिए इस्तेमाल होते हैं। कभी ताक़त की बात हो सकती है, तो कभी माइलेज और हैंडलिंग की। लेकिन हाल फ़िलहाल में सवारियों में फ़ीचर्स, पर्फोर्मेंस और रिफ़ाइनमेंट का ऐसा स्टैंडर्ड देखने को मिल रहा है, कि सभी सवारियों को एक ख़ास खाके में रखा जा सकता है, एक ही इंची-टेप से मापा जा सकता है । लेकिन ये बाइक ऐसी है जो आज कल की औसत प्रोडक्ट से बहुत अलग है। स्टाइलिंग पुरानी, फ़ीचर्स की लिस्ट छोटी और बनावट बहुत मोटी। बजाज की नई बॉक्सर। जो आई है पांच छह साल पुराने डिज़ाइन वाले हेडलैंप, चौड़ी सीटिंग, काम के बहुत थोड़े फ़ीचर्स के साथ । सीट के पीछे कैरियर । इसे देखकर एक सेकेंड के लिए राजदूत की याद आ गई । इसे लेकर सबसे बड़ा सरप्राइज़ तो यही है कि बजाज जो डेढ़ सौ सीसी के इलाक़े में पल्सर जैसी ट्रेंडी बाइक बनाती है वो ऐसी बाइक क्यों लेकर आई ?
.हर कंपनी के पास कुछ ऐसे प्रोडक्ट होते हैं दो फ़्लैगशिप प्रोडक्ट होते हैं। यानि ग्लैमरस, ख़ूबसूरत और नामी प्रोडक्ट जिसके बारे में चर्चा होती है और कंपनी का नाम होता है। वहीं कुछ ऐसी सवारियां होती हैं जो कंपनी की बिक्री के लिए बहुत ज़रूरी होती है , जो भले ही ग्लैमरस ना हों । और भले ही एक्सीड जैसी कोशिश फ़्लॉप रहे हैं लेकिन राजीव बजाज की ख़ूबी रही है कि वो आमतौर पर कुछ ना कुछ नया सोचते रहते हैं। और इसी सोच का नतीजा लग रही है बॉक्सर । 
इस बाइक को लेकर सभी बहस एक प्वाइंट पर आकर रुक से जाते हैं। वो प्वाइंट है इसकी क़ीमत। बजाज बॉक्सर जो डेढ़ सौ सीसी की एक बाइक है , उसकी क़ीमत है 42 हज़ार रु। दरअसल इसे देखने के लिए नज़र भी अलग चाहिए और यही क़ीमत इस बाइक को देखने के नज़रिए को बदल देती है।  


150 सीसी बाइक, जिसकी ताक़त लगभग 12 बीएचपी की और टॉर्क भी लगभग इतना ही। फ़िलहाल माइलेज का दावा है कि वो 55 से 60 किमी प्रतिलीटर है। इसकी राइड के बारे में, पर्फोर्मेंस के बारे में बहुत कुछ कहने के लिए नहीं, क्योंकि आमतौर पर बजाज की डेढ़ सौ सीसी पल्सर वाली तेज़ी या पकड़ नहीं दिखेगी, ठोस राइड है। 
कंपनी ने बॉक्सर के लिए कई विशेषण रखे हैं, जैसे दो पहियों पर एसयूवी और असल 'भारत बाइक' । इन सबका मतलब यही है कि इस मोटरसाइकिल का बाज़ार हैं उन जगहों पर जहां पर आम सड़क हैं टूटी-फूटी। उन ग्राहकों के बीच, जो मोटरसाइकिल का इस्तेमाल कॉलेज-ऑफिस के लिए ना करके, अपने काम के लिए करते हैं, यानि सामान लाने-ले जाने के लिए । और 42 हज़ार रू की क़ीमत बहुत ही आकर्षक कही जाएगी, इस बाज़ार और उस ग्राहक के लिए। जिस ग्राहक को बस काम से काम है, लाइफ़स्टाइल बाइकिंग से उसका कोई वास्ता नहीं है। 
हालांकि कुछ सालों पहले इस तरह की बाइक शहरों में दिखती थीं, लेकिन अब हर सेगमेंट के ग्राहक, यहां तक की सौ सीसी के ग्राहक भी थोड़े बहुत स्टाइल की उम्मीद करते हैं कंपनी से। तो ऐसे में बॉक्सर का लुक वाकई काफ़ी बेसिक है। क़ीमत को कम रखना वाकई बड़ी चुनौती है लेकिन अगर स्टाइल के मामले में ये थोड़ी और आकर्षक होती तो हो सकता है कि डेढ़ सौ सीसी की बॉक्सर आते ही सौ सीसी मोटरसाइकिलों का भी पसीना छुड़ा देती ।

November 08, 2011

फ़ॉर्मूला पर फ़साद ...WHY ???



फ़ॉर्मूला वन रेस को जब सामने से देखें तो सबसे पहले जिस चीज़ को आप महसूस करेंगे, जो आमतौर पर लोगों के रौंगटे खड़े कर देती है, वो है उन कारों की आवाज़। और कुछ चक्कर (जिसे एफ 1 की भाषा में लैप कहते हैं) के बाद जब आवाज़ की थोड़ी आदत हो जाए तो फिर नज़र जाती है उन बाईस कारों पर, जो एक जैसी, लेकिन बहुत तेज़ रफ़्तार में रेसट्रैक का चक्कर काटती भागती रहती हैं। अगर आप इस रेस को सिर्फ़ एक अजूबे की तरह देखने गए हैं तो फिर ये वो बिंदु होता है जिसके बाद से आपकी दिलचस्पी कम होने लगती है। आप इस रेस के पैटर्न को समझ कर, तेज़ आवाज़ की वजह से सरदर्द के साथ रेसट्रैक से बाहर जा सकते हैं। लेकिन अगर आप गए हैं, इस ईवेंट को एक नए खेल की तरह देखने के लिए। ये समझने के लिए कि आख़िर क्यों ये खेल दुनिया भर में सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले खेलों में टॉप पर है... क्या है ऐसा जो इसे सबसे महंगा बनाता है और क्या इसकी अहमियत है, तो कुछ बातें सामने आती हैं। जिनमें पश्चिमी संस्कृति के दो ख़ास पहलू भी हैं। एक तो है कांपिटिशन और दूसरा अनुशासन। कांपिटिशन ये कि कौन कितनी तेज़ कार बना सकता है और कौन इसे सबसे तेज़ भगा सकता है। लेकिन जो हिस्सा अजूबा लगता है वो है अनुशासन। वो अनुशासन जो कारों को तेज़, ड्राइवरों को संयमित और रेस को सुरक्षित बनाता है। कार, हेलमेट, रेसिंग के लिए कपड़े, टायर, कार की बॉडी और बेहद कड़े नियम, इन सबको तैयार करने के पीछे सिर्फ़ एक मक़सद कि कैसे इस रेस को ज़्यादा से ज़्यादा सुरक्षित बनाया जाए। मुझे ये उम्मीद थी कि इसी पहलू पर शायद लोगों की नज़र जाए, ट्रैक के अनुशासन का थोड़ा असर आम भारतीय सड़कों पर दुहराने की बात की जाए। भारत में इस रेस का आना, साफ़ है कि बढ़ते मार्केट और बिज़नेस की गुंजाईश की वजह से ही हुआ है, लेकिन है ये एक बड़ी विडंबना। सोचिए एक खेल, जिससे जुड़े हज़ारों लोग साल भर दो ही चीज़ों के बारे में सोचते हैं कि कैसे इन कारों को ज़्यादा से ज़्यादा तेज़ और सुरक्षित बनाया जाए, यही वजह कि कि 360 किमी की रफ़्तार में चलने वाली कारों के साथ भी पिछले 27 सालों से किसी की जान नहीं गई है, वो उस देश में आता है जहां पर दुनिया में सबसे ज़्यादा लोग सड़क दुर्घटनाओं में मरते हैं। एक लाख बीस हज़ार मौत सालाना। जिसकी चर्चा नहीं होती है, सरकारी मंत्रालयों, मीडिया या फिर ऑटोमोबील कंपनियों के द्वारा। ना तो सरकार लाइसेंस देने में कड़ाई की बात करती है, लाइसेंस जारी करने वाले आफ़िसों को दलालों से मुक्त कराती है और ना ही पैसे देकर लाइसेंस बनाने के ऊपर मीडिया का कोई स्टिंग ऑपरेशन होता है। क्योंकि ये किसी के लिए मुद्दा नहीं है। हालत ये है कि पिछले हफ़्ते मुंबई में एक शख़्स को लापरवाही से स्कूटर चलाने के आरोप में बंद कर दिया पुलिस ने, वो भी तब जब सड़क हादसे में उसकी मां की मृत्यु हो गई । दरअसल वो अपनी मां के साथ जा रहा था, सड़क के बीचोबीच गड्ढे की वजह से स्कूटर गिर गया, और मां की मौत हो गई। लेकिन इन सबके उलट बहस की अलग ही दिशा दिखी। तमाम तर्क सुनने को मिल रहे हैं इस खेल के ख़िलाफ़।

कुछ दिनों पहले तक फेसबुक पर कई ऐसे संदेश आ रहे थे आख़िर क्यों हो रहा है फ़ॉर्मूला वन भारत में और इससे किसका भला होगा। ग़रीबों का क्या भला होगा और किसानों का क्या भला होगा ? चूंकि ये सोच केवल कुछ आम हिंदुस्तानियों की नहीं थी। अचानक कई बौद्धिक भी इस खेल की आलोचना में उतर गए। बिना ये सोचे कि अगर एफ़-1 ग़रीबों और किसानों का भला करने लगेगा तो वो क्या करेंगे जिन्हें इस काम के लिए सरकार पैसे देती है। वो शायद भूल गए कि ये फ़ॉर्मूला वन, यूनाइटेड नेशन का उपक्रम नहीं है। कई क्रिकेट प्रेमियों को बर्नी एक्लेस्टन की वो बात बड़ी नागवार गुज़री कि भारत में एफ1 एक दिन क्रिकेट के बराबर लोकप्रिय हो जाएगा। वो लगे एफ 1 के मुखिया के बयान की धुलाई करने। सवाल तो ये भी उठता है कि आख़िर आईपीएल से कितने लोगों को रोज़गार मिलता है, क्रिकेट से कितने ग़रीबों का भला होता है। आईपीएल में तो शुरू में कुछ प्रतिभाशाली बालाओं की जगह भी थी, लेकिन अब तो वहां भी सभी विदेशी प्रतिभाएं नाचती दिखती हैं।
पता नहीं चल रहा है कि विरोध हो रहा है तो क्यों हो रहा है आख़िर भारत की किस परंपरा को ये चोट पहुंचा रहा है और किन मूल्यों का ह्रास हो रहा है इस खेल से जो सिर्फ़ एक खेल नहीं बल्कि ऑटोमोबील टेक्नॉलजी की एक तरह से प्रयोगशाला भी है। यहां से निकलने वाली टेक्नॉलजी कमसेकम आने वाले समय में आम गाड़ियों में तो अपनाई जाती है। इस रेस केआयोजन में देश की इज़्ज़त दांव पर नहीं लगी थी, कमसेकम वैसे नहीं जैसे कॉमनवेल्थ या वर्ल्ड कप क्रिकेट पर थी, इसीलिए जब इसका सफल आयोजन हो भी गया तो उसका रिश्ता देश के गौरव से नहीं जोड़ा गया, बल्कि मोटरस्पोर्ट्स के लिए बढ़ते फैन्स की संख्या और प्राइवेट कंपनियों के प्रबंधन की कुशलता से जोड़ा गया। इस पर कोई दो राय नहीं कि ये बाज़ार है, रेस एक व्यापार है। लेकिन ये भी समझने वाली बात है कि स्पांसर भी उसी पर पैसे लगाते हैं जिसमें गुंजाईश होती है। खेल और बाज़ार के नाम पर तो और भी दुकान चल ही रही है, इसे भी चलने दीजिए। इससे कुछ सीखने को तो मिल रहा है। 

November 02, 2011

नंबर 1 फ़ॉर्मूला


(24-10 को लिखी रिपोर्ट)

खेल कभी खेल नहीं रह जाते हैं जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हों। कभी महायुद्ध बन जाता है, जैसा कुछ साल पहले तक होता था जब भारत-पाकिस्तान आमने सामने होते थे। या फिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नामी-बदनामी के लिए अहम ब्रांडिंग बन जाता है, जैसे पिछले साल हुए कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान हुआ था। और ऐसी ही कुछ कहानी है फ़ॉर्मूला वन की भी। जो मोटरस्पोर्ट्स के एक ईवेंट से कहीं ज़्यादा है, कहीं बड़ा बन चुका है। रफ़्तार, इंजीनियरिंग और टेक्नॉलजी से बढ़कर ये मार्केटिंग, ब्रांडिंग, नेटवर्किंग से लेकर ग्लैमर और लाइफ़स्टाइल का ईवेंट बन चुका है। और ऐसे ही रफ़्तार के महाकुंभ का भारत एडिशन भी बन चुका है। इंडियन ग्रां-प्री। भारत का पहला फ़ॉर्मूला वन रेस।

आमतौर पर जैसा हमने देखा है वैसा ही इस रेस के साथ भी हुआ है भारत में। शुरूआत से ही कई विवाद रहे, उहापोह रहा और जब तक कि बुद्धा इंटरनैशनल सर्किट का उद्घाटन नहीं हो गया, डर यही था कि कॉमनवेल्थ वाली किरकिरी ना हो जाए, एफ1 के साथ भी। इसके अलावा ग्रेटर नौएडा के किसानों का आंदोलन, ज़मीन अधिग्रहण को लेकर होने वाली मारामारी के बीच आशंका ये भी रही कि ये रेसट्रैक भी उस खींचतान के बीच आएगा। लेकिन अभी तक आयोजक ये भरोसा ज़रूर दिला रहे हैं कि उस विवाद का रेसट्रैक की ज़मीन से कोई लेना देना नहीं है।

ख़ैर मोटरस्पोर्ट्स प्रेमियों  के लिए तात्कालिक राहत की बात ये है कि रेसट्रैक तैयार है। दुनिया भर के चुनिंदा रेस ड्राइवरों के लिए तैयार है बुद्धा इंटरनैशनल रेस सर्किट...जहां पर भागने वाली हैं दुनिया की सबसे दमदार फ़ॉर्मूला वन कारें। जहां पर एक एक मोड़ पर होंगी सबकी नज़रें और कई किलोमीटर दूर तक सुनी जाएगी आवाज़ें , उन रेसिंग कारों की जो सबसे प्रतिष्ठित, सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले खेल का हिस्सा हैं। 30 अक्टूबर 2011 है वो तारीख़ जब दुनिया के सबसे तेज़ तर्रार 24 ड्राइवर पहली बार होंगे इकट्ठा दिल्ली से सटे ग्रेटर नौएडा में और सभी रेस करेंगे एक दूसरे से। 5 हज़ार मज़दूर, 300 इंजीनियर और चौबीसों घंटे चले काम ने तैयार किया है ये रेस सर्किट जो 350 हेक्टेयर में फैला है। और इन सबके लिए ख़र्च हुए हैं 2 हज़ार करोड़ रु। और इस रेस के लिए लगभग 6 हज़ार टन सामान आएगा।

5.14 किमी लंबे रेसट्रैक में कई ऐसे स्ट्रेच दिए गए हैं जहां पर ओवरटेकिंग करने की गुंजाइश है। वहीं इस सर्किट की एक ख़ासियत है इसका स्ट्रेट, जहां पर टॉप स्पीड जाएगी 318 किमी प्रतिघंटे की।
14 मीटर का एलिवेशन यानि चढ़ाई ...जो दुनिया में शायद ही कहीं और है। कई रेसर जिनमें भारत के पहले एफ़ 1 रेसर नरैन कार्तिकेयन शामिल हैं उनके मुताबिक बुद्धा इंटरनैशनल सर्किट दुनिया के बेहतरीन ट्रैक में से एक होगा। भारत जैसे देश में फ़ॉर्मूला वन रेस की ज़रूरत को लेकर तमाम चर्चाएं चल रही हैं, जिसके पक्ष औऱ विपक्ष में हज़ारों दलीलें हवा में लहरा रही हैं, किसानों की ज़मीन पर क़ब्ज़े को लेकर शक जताया जा रहा है, जिसमें मैं पार्टी नहीं हूं, मैंने ना तो इन पहलुओं पर ठीक से पढ़ाई की है और ना किसानों से जाकर बात की है। मुझे सिर्फ़ एक चीज़ फिलहाल नज़र आ रही है और वो है एफ़ 1 देखने का मौक़ा। अपने तमाम हाइप, ग्लैमर और मार्केटिंग के बीच एफ-1 के बीचोबीच एक ऐसी दुनिया है, जो सिर्फ़ रफ़्तार और रोमांच की है, जो ऐसी तेज़ी से चलती है कि सबकुछ पीछ छूट जाता है। और वो ऐसी आवाज़ निकालती जाती हैं जो जो ज़िंदगी भर के लिए दिमाग़ के मेमोरी कार्ड में छप जाता है।
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*Published last week