May 30, 2012

वो दूसरे ग्रह नहीं...



कई मौक़ों पर इस बात को कहते हुए अलग अलग तरीके की प्रतिक्रिया पाई है। कुछ वाकई आह्लादित होते हैं, कुछ के चेहरे उत्सुकता से भरते हैं और कुछ मेरी दलील में देश के प्रति अभिमान महसूस कर सहानुभूति का भाव दिखाते हैं लेकिन कभी भी बहुत विश्वसनीय नहीं बन पाता हूं मैं। वो ये कि भारत में भी इंटरनैशनल स्टैंडर्ड की सड़कें हैं। और इस पर अविश्वास के पीछे वजहें भी हैं। समझाना बहुत जटिल भी है। सड़कों में गड्ढे या गड्ढों में सड़क के यक्ष प्रश्न पूछती जिन भारतीय सड़कों ने पिछली आधी शताब्दी से भारतीयों को बातचीत के लिए एक बहुत ही ठोस और विचारोत्तेजक टॉपिक दिया है, उनके बारे में कोई भी नई जानकारी का मतलब है इस विषय पर फिर से विचार मंथन, यानि फिर से सोच-विचार। बिना वजह की मेहनत। ख़ैर फिर भी कहूंगा। भारतीय सड़कें अंतर्राष्ट्रीय स्तर की हैं। शहर के तौर पर दिल्ली की सड़कें तो हैं ही इंटरनैशनल क्वालिटी की, देश के ढेरों हाइवे बेहतरीन क्वलिटी के हैं। और मेरी ये बातें बहस की शक्ल तब ले लेती हैं जब जब कोई नया-बड़ा लौंच होता है, तेज़ तर्रार करोड़ों की कार या फिर दमदार सुपरबाइक। या फिर कोई दुखद हादसा होता है जिनमें सैकड़ों हॉर्सपावर की ताक़त किसी की जान लेती है। हालांकि मेरी भागीदारी की ज़रूरत नहीं होती है इस बातचीत में क्योंकि करोड़ों की कार का ऐक्सिडेंट हमेशा से एक सनसनीख़ेज़ घटना होती है, एक तो आमतौर इन महंगी गाड़ियों के मालिक बड़ी हस्ती होते हैं और दूसरे ये दुर्घटनाएं बहुत ही भयावह होती हैं, जिनकी बारीकियों इतनी होती हैं कि कई दिनों की चर्चा हो जाए। हाल में दिल्ली की एक ऐसी ही दुर्घटना हुई और वैसी ही बहस भी हुई। भारत में कहां हैं सड़क ऐसी गाड़ियों के लिए, ये विदेश थोड़े ही ना है कि ऐसी गाड़ियां यहां भगाई जाएं। और देश-ग्लानि से भरे इन दलीलों पर तो जवाब देना बनता है ना। माना कि करोड़ों की कार थी लैंबोर्गिनी जिसका ऐक्सिडेंट हुआ, परखच्चे उड़ गए। एक साइकिल वाले बूढ़े भी चपेट में आ गए। और उस कार को चलाने वाला नौजवान मारा गया। तस्वीरें टीवी स्क्रीन पर सुबह से तैरने लगीं और विश्लेषण होने लगे, ये भारत के लिए बनी कार नहीं है, यहां की सड़कें ऐसी कारों के लिए ठीक नहीं।


करोड़ों की कार का ऐक्सिडेंट हमेशा से एक सनसनीख़ेज़ घटना होती है।

सबसे ज़्यादा सुपरकारों की वेराइटी मैंने हाल फिलहाल में दुबई में देखी थी, जहां पर सड़कें ज़बर्दस्त थीं और हाईवे तो और भी शानदार। वहां पर स्पीड लिमिट पता है कितनी थी 120 किमीप्रतिघंटे की। जो देश दमदार गाड़ियों के लिए नामी है और भारत में बदनाम है, जर्मनी। वहां के शहरों में स्पीड लिमिट 30 से लेकर 50 किमीप्रतिघंटे के बीच था। हां ऑटोबान ऐसा हाईवे है जिस पर स्पीड लिमिट नहीं है लेकिन वो भी लगभग आधे हिस्से में। हां लेकिन वो हाईवे भी कोई बीस-पच्चीस लेन वाला नहीं है। वैसा ही हाइवे है जैसे भारत में कई जगह दिखेंगे। टोकियो शहर के अंदर की सड़कें दिल्ली से पतली मिलेंगी । दरअसल जब से पैदा हुआ हूं भारत एक विकासशील देश ही बना हुआ है और ऐसे में विकसित देशों का एक अजीब से हौव्वा बना हुआ है विकासशीलों के ज़ेहन में, विकसित देश ना हो गए कोई अलग ग्रह ही हों। जहां पर इलेक्ट्रॉनिक सड़कें और डिजिटल गाड़ियां हों और हर सड़क पर बेशुमार रफ़्तार में गाड़ी भागती हों औऱ माहौल पूरा जादुई हो। लेकिन सच्चाई ये है कि फर्क सड़क की क्वालिटी में नहीं है, उस पर चलने वाले लोगों और चलाने वाली सरकारों में है। जहां पर एक-एक नियम को पालन किया जाता है। वहीं फेरारी और लैंबोर्गिनी 30 और 50 की स्पीड से ही उन सड़कों से गुज़रती हैं जहां पर लिमिट होता है। और जब उन्हें टॉप स्पीड चेक करनी होती है तो फिर वो रेसट्रैक पर जाते हैं। और यही फर्क है हमारे और उनके बीच। वो तेज़ रफ़्तार को पसंद करते हैं, इज़्ज़त भी और उसे कंट्रोल भी। उसके रोमांच को भी पहचानते हैं और ख़तरे को भी। लगेगी किताबी बात लेकिन विकसित देशों में आम लोगों के जान की क़ीमत हमारे यहां से ज़्यादा आंकी जाती है। इसीलिए नियम लागू किए जाते हैं, जिसकी लोग इज़्ज़त भी करते हैं, मानते भी हैं और ना मानने वाले के लिए भारी जुर्माना भी है। कुलमिलाकर ये उनके जीवन का हिस्सा है। यकीन नहीं आएगा, ओवरस्पीडिंग के लिए साइकिल का चालान होते मैंने ख़ुद देखा है जर्मनी में। जीहां एक साइकिल जो काफ़ी तेज़ जा रही थी और उसने स्पीड लिमिट पार कर ली थी।
तो इस दुनिया और उस दुनिया में फर्क बहुत महीन-बारीक और समाजशास्त्रीय विश्लेषण जटिलता लिए नहीं है। अब दोनों दुनिया की गाड़ी कमोबेश एक जैसी हो गई हैं, सड़कों में इस्तेमाल होने वाला तारकोल भी एक जैसा ही लगा। दरअसल फर्क बहुत ही बेसिक है। उन्होंने कुछ नियम बनाए हैं और ये तय कर लिया है कि इस नियम का पालन होकर रहेगा। और इस छोटे से फर्क का असर हम महसूस कर सकते हैं।
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