June 15, 2012

Options = Confusion


विकल्प जितने ज़्यादा होंगे कन्फ़्यूज़न उतना ज़्यादा होगा...और हो भी रहा है लोगों में। गाड़ियों के जितने विकल्प बढ़ते जा रहे हैं वहां पर कन्फ़्यूज़न बढ़ता जा रहा है। ग्राहकों के दिमाग़ में क्या चल रहा है ये मैं किसी सर्वे का नतीजा नहीं बता रहा हूं। ये मैं बता रहा हूं उन सवालों के बाद जिनसे रोज़ मेरा सामना होता है। कौन सी कार कौन सा इंजिन और कौन सा वेरिएंट। और इन तीन सवालों के अनगिनत जवाब हो सकते हैं। फ़ैसला लेना वाकई पहले से बहुत टेढ़ा काम हो चुका है। एक तो हर सेगमेंट में अनगिनत प्रोडक्ट हो चुके हैं और ऊपर से चुनाव के लिए क्राइटेरिया भी बहुत कौंप्लेक्स हो चुके हैं। पहले वैल्यू का मतलब सिर्फ़ पैसा वसूल था, जिसमें माइलेज से लेकर आफ़्टर सेल्स और मेंटेनेंस तक का दायरा आता था, अब ये पैमाना अगले लेवल पर जा चुका है। वैल्यू के तमाम माएने दिखाई दे रहे हैं। हाल के वक्त में देखें कुछ प्रोडक्ट देखें तो बात समझ में आएगी।

एक वक्त था जब कन्फ़्यूज़न नहीं था...वैल्यू का मतलब सिर्फ़ पैसा वसूल था। अब वैल्यू के तमाम माएने दिखाई दे रहे हैं।


नैनो जब आई थी तो उसके लिए लॉट्री निकली थी, लेकिन उसके बाद बिक्री के आंकड़ें ऐसे औंधे मुंह गिरे ये हम सब जानते हैं। लेकिन इसे समझना किसी के लिए भी मुश्किल है, कंपनी के लिए भी। अब नई नैनो की बिक्री थोड़ी बढ़ी है लेकिन एक वक्त ऐसा था जब रतन टाटा के सपना टूटा हुआ मान लिया गया था। कुछ लोग इस असुरक्षित कार बता रहे थे, जहां हर दिन कहीं ना कहीं किसी ना किसी कार में आग लगती है फिर 5-6 नैनो में लगी आग इस कार की बिक्री को तहस नहस नहीं कर सकती। ग्राहकों ने इस कार में वैल्यू देखना छोड़ दिया था। और ये वो कार है जो सबसे सस्ती औऱ ज़्यादा माइलेज देनी पेट्रोल कार थी। यही नहीं टाटा गाड़ियों का रखरखाव भी ज़्यादा ख़र्चीला नहीं।
ठीक उल्टा देखा हमने एक ऐसी गाड़ी के मामले में जो सस्ती नहीं थी, छोटी नहीं थी, और किफ़ायती भी नहीं। महिंद्रा की XUV 500, एक ऐसी गाड़ी जिसकी शुरूआती क़ीमत ही 10 लाख 80 हज़ार रखी गई थी। और आज की हालत ये है कि एक्सयूवी लॉट्री से मिल रही है। यानि सवा लाख की नैनो पर लॉट्री नहीं चला, एक्सयूवी पर चल गया।
वहीं तीसरी गाड़ी एर्टिगा का ज़िक्र भी ज़रूरी है। लौंच होते ही चारों ओर से बात आने लगी काफ़ी सस्ता लौंच है...और जिसे सस्ता बताया जा रहा था वो क़ीमत 5 लाख 90 हज़ार से शुरू हो रही थी। ऐसा नहीं कि ये गाड़ी इनोवा जैसी बड़ी या ज़ाइलो जैसे फ़ीचर्स से भरी हो। सात लोगों के बैठने के लिए काफ़ी बेसिक सा इंतज़ाम है। और इन्हीं सीमित फ़ीचर्स के साथ एर्टिगा ने आते ही मारुति को ख़ुश कर दिया, ग्राहकों को खींचकर। सिर्फ़ 5 दिनों में ही 10 हज़ार एर्टिगा बुक हो गई। ग्राहकों ने इसमें ऐसी सवारी देखी जो बड़े परिवार, छोटे ऑफिसों के लिए फिट गाड़ी कही जा सकती है और उन्होंने इसे बुक किया। जिसे परखने के लिए ज़ाहिर सी बात है कि केवल माइलेज और क़ीमत को ध्यान में नहीं रखा गया।
दरअसल अब जितनी गाड़ियां आती जा रही हैं ग्राहक पहले से परिपक्व होते जा रहे हैं, जिसमें किसी एक गाड़ी को देखने के लिए उनका चश्मा पहले से ज़्यादा पैना हो गया है, वृहत हो गया है। किसी भी कार के सिर्फ़ एक या दो पहलू नहीं देखते। इन सभी गाड़ियों को देखकर सिर्फ़ यही बात याद आती है कि जिस नज़रिए से भारतीय ग्राहकों को अब तक देखा जाता रहा है , वो पुराना पड़ गया है। अब भारतीय ग्राहक नई गाड़ी देखकर सिर्फ़ ये नहीं पूछते हैं कि- कितना देती है ?

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June 08, 2012

इसे कहेंगे Petro-Guilt :)

थोड़ा अपराध बोध हो रहा है। जिस बारे में आज आपसे अपने विचार बांटने की सोच रहा हूं वो आज के समय में थोड़ी अटपटी बात है। थोड़ी अव्यवहारिक भी। लेकिन जीवन में अव्यवहारिक चीज़ें ही कई बार बहुत रोमांचक भी होती हैं। जैसा कि फ़ॉर्मूला वन ट्रैक पर रेस कार ड्राइव करना है। इस जानकारी के साथ कि सरकार ने पेट्रोल की क़ीमतों में प्रतिलीटर साढ़े सात रु की बढ़ोत्तरी कर दी है तब मैं मोटरस्पोर्ट की कैसे बात कर सकता हूं। सरकार ने जब डीज़ल और गैस पर से सब्सिडी ख़त्म करने के लिए संकेत दे दिए हैं तब मैं कैसे माइलेज की जगह रफ़्तार और टॉप स्पीड की बात कर सकता हूं। लेकिन इस अपराध बोध के साथ भी लग ज़रूर रहा है कि ये अनुभव आपके साथ बांटूं। एक पेट्रोल पर भागने वाली रेस कार चलाने का। फ़ॉर्मूला वन ट्रैक पर ड्राइव का। वो ट्रैक जहां पर दुनिया की सबसे तेज़ कारें भागती हैं। जहां पर हम अपने सामने साढ़े तीन सौ किमी प्रतिघंटे की रफ़्तार में जाती कार को देख सकते हैं । जिसके बाद ड्राइवर की काबिलियत, हिम्मत और टेक्नॉलजी की तारीफ़ करते हुए हफ़्ते गुज़ार सकते हैं। ऐसे ट्रैक पर अगर गाड़ी भगाने का मौक़ा मिले तो कैसा रहे ? मैं बताऊं...बहुत अच्छा रहे। ऐसा कोई भी मौक़ा मिले तो तपाक से हां कर देनी चाहिए, सोच तो यही थी लेकिन जीवन इतना सरल नहीं इसीलिए काम के सिलसिले में मुझे एक-दो न्यौतों को मना करना पड़ा। ख़ैर मौक़ा बना और मैं दिल्ली की चंडाल गर्मी की ठीकठाक गर्म सुबह पहुंच गया बुद्धा इंटरनैशनल सर्किट पर। और मुझे इस ट्रैक पर चलानी थी पोलो कप कार। दरअसल फ़ोक्सवागन जेके टायर के साथ मिल कर एक रेसिंग सीरीज़ भारत में लाई है। इसे वन मेक रेस भी कह सकते हैं, जिसमें हर ड्राइवर एक ही गाड़ी चलाता है, यानि एक जैसी। दरअसल इस तरह की रेसिंग सीरीज़ में गाड़ियां आयोजक तैयार करते हैं और ड्राइवर को सिर्फ़ रेस करना होता है। इससे एक तरह से ड्राइवर की असल काबिलियत भी पता लगती है क्योंकि सभी ड्राइवर एक ही इंजिन, ताक़त और बनावट वाली कार दौड़ाता है। तो इस साल इस ख़ास ड्राइव का मक़सद ये था कि फोक्सवागन ने पोलो कप में दौड़ाने वाली कार को बदला है, पिछले दो साल जो डीज़ल पोलो दौड़ती थी वो अब बदल कर पेट्रोल हो गई है। लगभग सवा सौ हॉर्सपावर वाले डीज़ल इंजिन को बदल कर लगभग 180 हॉर्सपावर वाले पेट्रोल इंजिन में।



पेट्रोल की क़ीमतों में प्रतिलीटर साढ़े सात रु की बढ़ोत्तरी के बाद मोटरस्पोर्ट की बात कैसे हो। डीज़ल और गैस सब्सिडी ख़त्म करने के संकेत दे हैं तब माइलेज की जगह रफ़्तार और टॉप स्पीड की बात कैसे हो !!
ख़ैर इसमें रेस करने के लिए पहले तो ड्राइवर को काबिलियत दिखानी होती है और फिर 7 से 14 लाख रु सालाना फ़ीस देनी होती है। इसी के टेस्ट ड्राइव का मौक़ा था और हमारी बारी आते आते सूरज ने मूड और उग्र कर लिया था। और रेसिंग कारों में एसी तो होती नहीं और ऊपर से वीराने में बने रेसट्रैक पर गर्मी का आलम तो कुछ अलग ही होता है लेकिन चलाने का मज़ा ऐसा आता गया कि रुकने का नाम नहीं ले रहा था मैं। दरअसल रेसट्रैक पर ड्राइव करने का सबसे पहला मतलब ये है कि आप अपनी और अपनी गाड़ी की सीमा जान सकते हैं। आप ज़्यादा से ज़्यादा किस रफ़्तार में जा सकते हैं, गाड़ी को तेज़ रफ़्तार में कैसे मोड़ सकते हैं और कम से कम समय में ट्रैक का चक्कर काट सकते हैं। और ये भावना वाकई चस्के वाली होती है क्योंकि रेसट्रैक सीधे तो होते नहीं, तुरत-फुरत तीखे मोड़ होते हैं और ऐसे में गाड़ी की रफ़्तार बनाए रखना बहुत चुनौती का काम होता है। कई मोड़ ऐसे होते हैं जहां पहिए ज़मीन छोड़ने लगते हैं और संभालना काफ़ी मुश्किल होता है। कुल मिलाकर कहें तो हमारे ड्राइविंग,संतुलन और काबिलियत को पूरा टेस्ट कर लेते हैं रेस ट्रैक। और ऐसे ट्रैक पर चलाते वक्त मुझे ये ही महसूस हो रहा था कि देश के हर शहर के बाहर एक ना एक छोटा-बड़ा रेसट्रैक होना ही चाहिए। जहां पर जाकर हम आप अपनी ड्राइविंग को सुधार सकें और वो ड्राइवर जो शहरों की सड़कों पर लोगों के बीच ख़ुद को माइकल शूमाकर साबित करने की कोशिश करते रहते हैं, उनकी ड्राइविंग की असलियत भी तो पता चले !

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June 05, 2012

Celebrities for Common Man !!!??


बॉलीवुड का प्रेम कहें, बॉलीवुड की ताक़त पता नहीं लेकिन भारत में इससे बेहतर उपाय नहीं हैं लोगों से जुड़ने के लिए लगता है। तमाम न्यूज़ चैनल के तमाम प्रड्यूसरों के बीच अचानक रोना पीटना मच गया कि आमिर ख़ान ने हमारा आइडिया चोरी कर लिया। अब आमिर ख़ान भले ही आंसू निकालते बहुत सहज ना लगे हों लेकिन देखने वाली बात ये भी है कि वो स्टार पावर ही था जिसकी वजह से देश के तमाम कोनों में एक साथ कन्या भ्रूण हत्या पर चर्चा हो रही थी। भले ही ये चर्चा दो दिन की ही हो। कहने का मतलब ये कि पूरे देश से एक साथ जुड़ने के लिए बॉलिवुड से बढ़िया शॉर्टकट शायद ही कोई हो। और मक़सद चाहे सामाजिक हो या बाज़ारिक। जैसे अगर किसी मोटरसाइकिल कंपनी का मक़सद हो भारत में नंबर एक बनने का तो वो क्या करे ? जीहां सही जवाब। बॉलीवुड स्टार को ब्रांड एंबैसेडर बनाएगी। वही किया भी, हौंडा मोटरसाइकिल एंड स्कूटर इंडिया लिमिटेड ने। हीरो से गठजोड़ टूटने के बाद हौंडा अपने बूते पर भारत में नंबर एक टू-व्हीलर कंपनी बनना चाहती है। जिसके लिए कंपनी ने साल 2020 तक का लक्ष्य रखा है।

 और नंबर एक बनने के लिए ज़रूरी है कि हीरो के असल गढ़ में सेंध लगाई जाए, यानि सस्ती सौ सीसी बाइक। औऱ हौंडा ने यही किया भी। यही नहीं, इस बाइक को आम ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए कंपनी ने अपनाई है जानी मानी रणनीति। बॉलीवुड। हौंडा ने अपनी नई सस्ती मोटरसाइकिल उतार दी है ड्रीम युगा के नाम से, 110 सीसी की मोटरसाइकिल जिसकी शुरूआती क़ीमत साढ़े चवालिस हज़ार रु रखी गई है। और इस मोटरसाइकिल पर बैठे प्रेस के सामने आए हौंडा के नए ब्रांड एंबैसेडर। अक्षय कुमार। अब तक हौंडा स्कूटरों में नंबर एक कंपनी रही है, मोटरसाइकिल भी थोड़े मंहगे सेगमेंट वाले रहे हैं। लेकिन अब कंपनी को ज़रूरत है आम ग्राहकों तक पहुंचने की, गांव-गांव कस्बे-कस्बे तक, जिसके लिए अक्षय कुमार को कंपनी ने चुना है।

 पूरे देश से एक साथ जुड़ने के लिए बॉलिवुड से बढ़िया शॉर्टकट शायद ही कोई हो। और मक़सद चाहे सामाजिक हो या बाज़ारिक।


वैसे दिलचस्प बात ये है कि बाकी के जापानी मोटरसाइकिल महारथी भी इसी रणनीति को अपनाते देखे गए हैं। दरअसल ऐसे में सबसे पुरानी दोस्ती रही है यामाहा और जॉन अब्राहम की। जहां यामाहा ने पहली बार जॉन को तब अपनाया जब कंपनी भारत में दो नई बाइक लाकर हंगामा करना चाह रही थी। आर 15 और एफ़ज़ी के साथ। लेकिन बाद में भी हालत सुधरी नहीं और ख़र्च बचाने के  चक्कर में यामाहा ने जॉन से किनारा कर लिया। लेकिन अब दोस्ती वापस बन चुकी है। लेकिन यहां पर चर्चा करने वाली एक और दिलचस्प बात ये है कि तीसरी जापानी महारथी सुज़ुकी ने भी यही रणनीति अपनाई है। और कंपनी की आने वाली सस्ती बाइक हायाते के ब्रांड एंबैसेडर के तौर पर ला रही है दबंग सलमान ख़ान को। जिस सेगमेंट में हायाते या ड्रीमयुगा आ रही है वहां के लिए सलमान और अक्षय किसी भी कंपनी के लिए ज़रूरी भी हैं।
हौंडा ने एक दिलचस्प आंकड़ा दिया कि कंपनी के दुनिया भर की बिक्री में से 13 फीसदी भारत से फिलहाल आती है। इसी बिक्री को कंपनी 2020 तक 30 फीसदी तक ले जाना चाहती है। साफ़ है कि भारतीय बाइक बाज़ार कितना अहम है इनके लिए।  इन कंपनियों की कोशिशें इसी बात का सबूत हैं कि भारतीय बाइक बाज़ार में अपना हिस्सा बनाने और बढ़ाने के लिए वो कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती हैं। 

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