December 31, 2014

इमोशनल अपील


आज का वक्त ऐसा आ गया है जब कारों और मोटरसाइकिलें बहुत हद तक एक जैसे हो गए हैं। अगर तकनीकी और आंकड़ों के हिसाब से देखें तो बहुत हद तक मिलते जुलते। जैसे किसी एक सेगमेंट को ले लीजिए, तो वहां पर इंजिन की क्षमता, बीएचपी से लेकर गाड़ी की माइलेज वगैरह एक जैसे ही नज़र आएंगे। अंतर होगा, लेकिन मामूली। ऐसा नहीं जो क्रांतिकारी हो और आपके ख़रीद के फ़ैसले को बदल दे, या फिर यूएसपी बन जाए। कुछेक ही प्रोडक्ट आजकल ऐसे होते हैं जिनके पास ऐसे एक्सक्लूसिव फ़ीचर्स होते हैं और वो फ़ीचर्स भी जल्द बाकी कंपनियां ले आती हैं। ऐसे में हम कोई प्रोडक्ट क्यों ख़रीदते हैं इस फ़ैसले को किसी नंबर और मीटर पर  नापना बहुत आसान या सीधा काम नहीं है। इसमें काफ़ी हद मार्केटिंग और ब्रांडिंग की चाशनी फैली रहती है और बहुत हद तक इन सबके नतीजतन हमारा फ़ैसला इमोशनल भी हो जाता है। अपने आसपास किसी से भी पूछिए तो जड़ में जो वजहें आती हैं वो कई बार आती हैं जिसे क़ीमत या बीएचपी में समझना मुश्किल है। बहुत हद तक फ़ैसला आ जाता है उसी प्वाइंट पर कि कार को देख कर हम कैसा महसूस कर रहे हैं, गाड़ी के साथ क्या महसूस कर रहे हैं। तो वही बात कि सवारियों की ख़रीदारी में जहां समझदारी का रोल होता है बहुत सा हिस्सा उसकी अपील से जुड़ा भी होता है। ख़ैर ये सब मैं सोच रहा था जब ऑडी की एक कार चलाने का हाल में मौक़ा आया था। और ये सोच इसलिए आ रही थी, क्योंकि मैं सोच रहा था कि इसे चलाने की मुझे ज़्यादा इच्छा क्यों नहीं हई थी अब तक। और इसके पीछे कोई ठोस लॉजिक वाली वजह नहीं थी। ऑडी की टीटी कूपे। दो दरवाज़ों वाली छोटी स्पोर्टी कार जो मुख्य तौर पर स्पोर्टी छोटी कार के तौर पर आती है। हाल में इसके नए किट यानि एस लाइन कही जाने वाले किट की वजह से ऑडी चाहती थी कि मैं इसे चला कर देखूं कि कैसा है ये नया पैकेज। और ये भी समझूं कि कैसा प्रदर्शन होता है इसका। कितनी रोमांचक है ये कार। ऑडी टीटी को अगर देखें पहली नज़र में बहुत अलग सी कार लगेगी, छोटी स्पोर्ट्स कार तो लगेगी ही, क्योंकि है तो टू सीटर ही, पीछे दो सीटें को बस ख़ानापूर्ती के लिए ही हैं। इस छोटे आकार के साथ जो चीज़ सबसे पहले आपके ज़ेहन में जाएगी वो है इसकी बनावट, इसका लाइन। ये किसी भी एंगिल से शार्प या तीखी बनावट वाली कार नहीं लगेगी। हेडलैंप से लेकर टेललैंप तक, छत से लेकर बंपर तक, सबकुछ गोलाई लिए है। जो मेरे पसंद का नहीं है, हालांकि ढेरों कार प्रेमी हैं जिन्हें ये पसंद है डिज़ाइन। ख़ैर। कार को मैंने चलाना शुरु किया और इसको इंजिन की ताक़त औऱ हैंडलिंग ने समां तो बांधा। तेज़ और हल्की कार, बढ़िया हैंडलिंग और ठोस सस्पेंशन से लैस। जितना इसे चलाता गया, उतनी रोमांचक ये कार लगती गई। इसका छोटा आकार औऱ इसका 211 हॉर्सपावर की ताक़त मुझे मज़ेदार लग रही थी।  इसका इंजिन 1984 सीसी की था। तो पैकेज शानदार लग रही थी। और चूंकि ये ऑडी टीटी कूपे का एस लाइन वर्ज़न था तो अंदर ज़्यादा शाही था, सीटें ज़्यादा आरामदेह। कुल मिलाकर ड्राइव का अनुभव अच्छा हुआ और रोमांचक लगा। तो फिर सोचा कि इसका लुक मुझे ज़्यादा पसंद नहीं था शायद इसलिए अपील नहीं करती थी ये कार पहले। लेकिन आजके प्रदर्शन से तो अच्छी ही लग रही थी। और फिर दिल के बाद बारी आई एक दिमाग़ी एंगिल की। वो है इसकी क़ीमत लगभग 56 लाख रु। औऱ फिर बिंदू वहीं जाकर विश्राम करने चली गई। अगर आपको ये कार दिल से अच्छी है तभी लेंगे आप, नहीं तो इस बजट में कई और तरीके के विकल्प मौजूद हैं।

*पुरानी छपी हुई है। 

December 29, 2014

असली बाइकर नक़ली बाइकर

बार बार उन्हें बाइकर बुलाया जाता है तो बुरा लगता है। असल बाइकर ऐसे थोड़े ही ना होते हैं। बहुतों को जानता हूं, जो दिल से और जीने के तरीके में बाइकर हैं। ख़ुद मैं भी उनमें से हूं जो ये मानते हैं कि बाइक पर लंबी राइड जीवन के लगभग हर तरीके की परेशानी को दूर कर देती है। और ऐसे में जब बिना हेलमेट के, सैकड़ों के झुंड में देर रात सड़कों पर, लोगों को परेशान करते हुए, बाइक भगाते नौजवानों को देखता हूं तो फिर बुरा लगता है। उन्हें देखकर ये नहीं लगता है कि वो इस सवारी का मज़ा लेने के लिए निकले हैं। साफ़ लगता है कि वो भड़ास निकालने के लिए निकले हैं सड़कों पर। उनके सामने पुलिस वालों को भी एक तरीके से बेबस देखता हूं। एक जिप्सी में दो पुलिस वालों के सामने से एक साथ 50 मोटरसाइकिलें निकलें तो फिर किसी को भी संभालना मुश्किल लगेगा ही। और कौन उनसे उलझे वाले भाव से वो दूसरी ओर देखने लगते हैं। कौन उन्हें हेलमेट के लिए पूछे और कौन रेडलाइट जंप करने पर सवाल करे। और ऐसे में नतीजा ये होता है कि बाइकसवार हुड़दंग मचाते चलते हैं और जो लोग उनके रास्ते में आते हैं परेशान होते रहते हैं। और सबसे ज़्यादा ये हुड़दंग देखने को मिलता है किसी ना किसी त्यौहार के दौरान। जहां पर मानो लाइसेंस मिल जाता है सब बाइकसवारों को कुछ ना कुछ स्टंट करने का। और जब तक पुलिस वालों पर नहीं पड़ती वो उन्हें घेरते भी नहीं। पहले तो पुलिस नज़रअंदाज़ करती रही, फिर टीवी चैनलों पर लगातार विज़ुअल दिखाने पर दबाव बढ़ा और फिर पुलिस ने कार्रवाई करनी शुरू की। और पिछली बार तो हद ही हो गई, जब एक बाइकसवार की पुलिस की गोली से मौत ही हो गई। कुछ वक्त पहले घटना सामने आई है जहां पर पुलिस वालों ने लगभग 400 बाइकसवारों को पकड़ा, 250 मोटरसाइकिलों को ज़ब्त किया। इसकी भी तस्वीर काफ़ी अजीबोगरीब थी, पुलिसवालों को ऐसे डंडे बरसाते देखा गया कि समझ नहीं आ रहा था कि पुलिस करना क्या चाहती है इनके साथ। लाठी के चोट लिए नौजवान भी बिलबिलाते दिखे। ख़ैर, इस सबके बाद इन सभी नौजवानों की काउंसेलिंग भी करवाई गई। दिल्ली पुलिस ने तमाम धर्मगुरूओं को बुला कर इन नौजवानों को समझाने के लिए कहा। उन्होंने अपने अपने संदेश दिए। बाद में इनके मां-बाप को बुलाया गया, उनसे बात की गई और कहा गया कि अपने बच्चों को सिखाएं संभालें। इन क़दमों से लगा कि पुलिस कुछ तो रास्ते पर है इस समस्या से निपटने में। लेकिन अनुशासन एक बार में तो बनता नहीं है। रोज़ रोज़ की आदत ही अनुशासन में बदलेगी । तो पहले तो पुलिस को नियमों के पालन के लिए ज़ोर लगाने की ज़रूरत है, जिससे नियमों को तोड़ना किसी को भी आसान ना लगे। एनफ़ोर्समेंट की कमी नियम-क़ानून को बेमानी बना देते हैं। और हर बार बाइकसवारों को हुड़दंग के बाद यही देखने को मिलता है। दूसरे पुलिस को इन नौजवानों से निपटने के लिए इनसे बात करनी होगी, केवल कड़ाई से तो ये उम्र रुकने वाली होती नहीं है। ऐसे में ज़रूरत है कि उनसे पुलिस किसी ना किसी तरीके से एक संवाद भी बनाए, उनसे बात करे और समझाए कि केवल नियम के लिए नहीं अपनी जान की सुरक्षा के लिए भी सेफ़्टी ज़रूरी है। और ये भी कि असल बाइकर अपनी बाइक से प्यार तो करते ही हैं, बाकी सवारों की इज़्ज़त भी करते हैं।

*पहले छपी हुई है। 

December 27, 2014

टोयोटा कोरोला ऑल्टिस


दुनिया में सबसे ज़्यादा बिकने वाली सेडान कार टोयोटा कोरोला ऑल्टिस अपने ग्यारवहें जेनरेशन में। और इसमें बदलाव बाहर से लेकर अंदर तक देखने को मिल सकता है। सबसे पहले जो चीज़ आपको इसमें नई दिखेगी वो बाहर ही दिखेगी। कंपनी ने 
ऑल्टिस के चेहरे मोहरे को बदला है। जिसमें बड़ी भूमिका है इसके नए फ़्रंट ग्रिल को नया देखेंगे, साथ में एलईडी लाइट्स भी नए हैं। इसके अलावा आप देख सकते हैं इसके 16 इंच के अलॉय और क्रोम से चमकता ये पैकेज। 

कार के अंदर भी इसे आप ज़्यादा प्रीमियम होते देख सकते हैं। जहां पर कार्बन पियानो ब्लैक से ये आकर्शक लगेगी, स्टीयरिंग माउंटेड कंट्रोल। डोर हैंडिल के भीतर क्रोम है।  कार के व्हीलबेस को 100 एमएम बढ़ाया गया है।  वहीं आराम के लिए कुछ फ़ीचर्स का ज़िक्र करना ज़रूरी है। जहां पर इसमें लगे हैं रेन सेसंर, वहीं 7 इंच एलसीडी स्क्रीन के साथ नैविगेशन जिसमें यूएसबी और ब्लूटूथ की कनेक्टिविटी है और इसमें ऑडियो भी है। 

पिछली सीट पर आराम के लिए कुछ ख़ास नयापन है। पिछली सीट को रिक्लाइन करने की सुविधा है, जो इस सेगमेंट में नहीं देखने को मिलता है। साथ में पिछली सीट पर लेगरूम भी बढ़ाया गया है। पिछली सीट पर रीडिंग लाइट, सनशेड और पावर सॉकेट दिया गया है। समझ सकते हैं कि इस सेगमेंट में कहानी पिछली सीट पर ही हिट होती है,क्योंकि ऐसी कारों के ग्राहक पीछे ही बैठते हैं। तो वहां पर ज़्यादा आराम और फ़ीचर्स के साथ इसे आकर्षक पैकेज बनाने की कोशिश की है। 
पेट्रोल वर्ज़न वाली कोरोला ऑल्टिस में लगा है 1.8 लीटर वीवीटीआई इंजिन। इसमें एक सीवीटीआई और एक मैन्युअल वर्ज़न का विकल्प है। वहीं इसमें से एक विकल्प है 1.4 लीटर डी4डी इंजिन भी। 

वहीं सुरक्शा के लिए इसमें रियर कैमरा लगा है, डिस्प्ले ऑडियो स्क्रीन के साथ
और बाक़ी के फ़ीचर्स है वो जो आमतौर पर इस सेगमेंट की कारों में होते हैं, जैसे ब्रेक असिस्ट ईबीडी और एबीएस के साथ। और साथ इमोबलाइज़र भी। 

आख़िर में इसकी क़ीमत आपको बता देते हैं। यहां पर पेट्रोल कोरोला की एक्सशोरूम क़ीमत शुरू हो रही है 11.99 लाख रु से और जाती है 16.89 लाख रु तक।   वहीं डीज़ल वर्ज़न की एक्सशोरूम क़ीमत 13.07 से 16.68 लाख रु के बीच है। 


*पुरानी छपी हुई है। 

December 25, 2014

Harley Street 750

हार्ली की नई नवेली स्ट्रीट 750 को कुछ वक्‍त पहले चलाई थी। सोचा एक बार फिर से उस राइड को आपके लिए याद करूं। भारत में कंपनी ने इसे लौंच कर दिया है पिछले ऑटो एक्स्पो के वक्त । एक शांत शनिवार की सुबह को राइड के लिए चुना गया था। मोटरसाइकिल चलाने के लिए मौसम बिल्कुल फ़िट । और हम भी अपने राइडिंग गियर के साथ फ़िट हो गए थे। और तैयार थे स्ट्रीट 750 को चलाने के लिए । 
हार्ली डेविडसन की ये मोटरसाइकिल कई मामले में अहम है भारतीय मोटरसाइकिल बाज़ार के लिए भी और ख़ुद कंपनी के लिए भी। पहली बार जहांं कंपनी ने इतना छोटा इंजिन तैयार किया है, (नई स्ट्रीट सीरीज़ में कंपनी ने 500 और 750 सीसी के इंजिन तैयार किए हैं, जिनमें से फ़िलहाल 750 भारत में लौंच हुई ), साथ ही ये एयरकूल्ड इंजिन नहीं लिक्विड कूल्ड हैं। इसके अलावा जो चीज़ नई है इसके लिए वो है, भारत में इसका प्रोडक्शन। जो हार्ली के इतिहास मे ंपहले नहीं हुआ था। ज़ाहिर है भारत में बड़ी बिक्री की उम्मीद कर रही है कंपनी। और इसके लिए कंपनी ने सबसे पहला क़दम तो कंपनी ने काफ़ा ज़ोरदार उठाया है। इस मोटरसाइकिल की क़ीमत के साथ, जो शुरू हो रही है 4 लाख 10 हज़ार से। इसके साथ ये सबसे सस्ती हार्ली मोटरसाइकिल बाइक हो गई है।



तो भारत में बनी इस मोटरसाइकिल को चलाने के लिए हम तैयार थे और लेकर फिर निकल पड़े इसे सड़कों पर। बिल्कुल नई बाइक की पहली राइड। 

स्ट्रीट 750  में लगा है 749 सीसी की लिक्विड कूल्ड इंजिन, जिससे 65 एनएम टॉर्क आता है। आंकड़ों के हिसाब से तो स्ट्रीट 750  के पास अच्छे नंबर हैं, लेकिन क्या ये नंबर सड़क पर वैसे लगते हैं कि नहीं। शुरूआती सवारी में ही लगा कि स्ट्रीट एक ताक़तवर सवारी है। मज़ेदार और दमदार। सुबह सुबह खुली सड़कों पर भागने में इसने कोई कोताही नहीं दिखाई और भरपूर ताक़त के साथ भागी। अगर ख़ाली और सुरक्षित ट्रैक मिले तो फिर 150 की रफ़्तार तक ये बहुत आराम से चली जाती है। किसी स्पोर्ट्स बाइक की तरह नहीं लेकिन तेज़ी और चुस्ती से। यही नहीं इसकी हैं़डलिंग भी काफ़ी अच्छी लगी। तेज़ रफ़्तार में आड़े तिरछे रास्तों पर मुड़ते हुए कभी भी हिचक नहीं लगी। इंप्रेसिव। 
आम तौर पर हार्ली डेविडसन की मोटरसाइकिलें भारी भरकम सी होती हैं जिन्हें धीमी रफ़्तार में चलाना उतना आरामदेह नहीं होता, भारी शहरी ट्रैफ़िक के बीच संभालना थोड़ा मुश्किल होता है, लेकिन स्ट्रीट 750  की बात करें तो ये बाकियों से हल्की हैंडलिंग वाली है, शहरी ट्रैफ़िक में चलते हुए इसे संभालना किसी भी हल्की बाइक के बराबर ही लगा। गाड़ियों के बीच से निकालना मुश्किल नहीं लगा। 
लेकिन हां, बाइक बड़ी मोटरसाइकिलों की तरह ही गर्म होती है, गर्मी के मौसम में इसे चलाना बहुत आरामदेह नहीं होगा लगता है। वहीं इसकी आकार लंबे लोगों जैसे मेरे लिए बहुत आरामदेह नहीं है। बाइक मौजूदा सुपरलो और आयरन जैसे आकार की लगेगी। हां अगर औसत हिंदुस्तानी लंबाई है तो फिर फ़िट होगी आपके लिए। 
तो इस राइड को ख़त्म करके लगा कि हार्ली ने कुछेक छोटी कमियों को छोड़ एक तेज़ तर्रार बढ़िया बाइक बनाई है, अच्छी क़ीमत पर लौंच किया है। एक ज़ोरदार पैकेज जो हार्ली के लिए अच्छी ख़बर है भारत में।

* पहले छपी हुई है।

December 23, 2014

फ़ोर्ड एकोस्पोर्ट रीकॉल


कंपनी के मुताबिक़ एकोस्पोर्ट पेट्रोल के दोनों वेरिएंट्स, एक लीटर ईकोबूस्ट और १.५ लीटर इंजिन, में फ़्यूल और वेपर लाइन में जंग लगने का डर देखते हुए कंपनी वर्कशॉप में बुलाकर उन्हें ठीक करेगी। वहीं एक और समस्या है जिसे कंपनी इसी रीकॉल में ठीक करने की बात कर रही है, वो है टॉपएंड टाइटेनियन ऑप्शन में साइड एयरबैग ठीक से खुलने के लिए वायरिंग की समस्या को ठीक करना। फोर्ड ग्राहकों को लिख रही है कि वो पता करें और स्थानीय फोर्ड डीलर से संपर्क करें, जहां बिना ग्राहक के ख़र्चे के बदलाव किए जा सकें।  शुरुआत में भी फ़ोर्ड ने अपनी एकोस्पोर्ट के डीज़ल वर्ज़न का रीकॉल किया था। हालांकि वो लौंच के आसपास का रीकॉल था तो संख्या ९७२ यानि हज़ार से कम कारों की थी। वो डीज़ल वर्ज़न में ग्लो प्लग की समस्या था। वहीं कंपनी ने हाल में अपनी ३ हज़ार से ज़्यादा फ़िएस्टा का भी रीकॉल किया था।

इस रीकॉल का तब से इंतज़ार चल रहा था जब ऑस्ट्रेलिया में फ़ोर्ड ने भारत में बनी एकोस्पोर्ट को रीकॉल करने का ऐलान किया था। वहां पर साइड एयरबैग की समस्या बताई गई थी।
भले ही रीकॉल को लेकर कंपनियों की सांस अब वैसी नहीं फूलती जैसे पहले फूलती थी। कंपनियां गाड़ियों को बुलाने में पहले बहुत ज़्यादा बचती थीं, बदनामी के डर से वो या तो छुप कर कारों को ठीक करती रही हैं या फिर ग्राहकों को अपने हाल पर छोड़ती रही है। लेकिन अब कंपनियों की तरफ़ रीकॉल का ऐलान पहले से ज़्यादा होता है। भले ही कंपनियां रीकॉल से वैसा कतराती ना हों, ग्राहक डरते ना हों लेकिन भारत में बन कर एक्सपोर्ट होने वाली गाड़ियों की क्वालिटी को तो डबल चेक करने की ज़रूरत है ही अगर दुनिया भर में मेक इन इंडिया जैसी कोशिशों को सफल करना है। 
अगर आपके पास भी फ़ोर्ड एकोस्पोर्ट है तो फिर ये ख़बर है आपके लिए। कंपनी ने भारत में 20,752 फोर्ड EcoSport को रीकॉल करने का ऐलान किया है। इन गाड़ियों में कुछ ऐसी समस्याएं थीं जिन्हें ठीक करने के लिए कंपनी अब अपने ग्राहकों को लिखने वाली है। कंपनी ने एक प्रेस रिलीज़ करके जानकारी दी है कि जनवरी 2013 और सितंबर 2014 के बीच कंपनी के चेन्नई प्लांट में बनी EcoSport का चेकअप किया जाएगा। इसे वॉलंटरी रिकॉल बताया जा रहा है। ग्राहकों की समस्या के मद्देनज़र ये क़दम उठाए जा रहे हैं। 

December 22, 2014

यूनिकाॅर्न ने बदला रूप

हौंडा मोटरसाइकिल ने अपनी नई मोटरसाइकिल उतार दी है। हौंडा की 163 सीसी वाली नई CB यूनिकॉर्न । नए रंग-रूप में । 
हाल फ़िलहाल में कंपनी ने अपने मोटरसाइकिल पोर्टफ़ोलियो को बड़ा किया है और इसमें शुरूआती सेगमेंट से लेकर डेढ़ सौ सीसी वाले सेगमेंट में भी नयापन ज़रूरी था। इस साल कंपनी ने चार लौंच किए हैं। जिनमें स्कूटर और छोटी मोटरसाइकिल से लेकर लाखों की गोल्डविंग भी रही है। तो कंपनी ने अपनी जानी पहचानी यूनिकॉर्न को रिफ्रेश करने की कोशिश की है।  इसकी स्टाइलिंग और डिज़ायन में बदलाव किए हैं। और हाल फिलहाल में सभी स्कूटरों में जिस HET टेक्ऩॉलजी का इस्तेमाल किया थो वो इसमें भी डाला है, माइलेज बढ़ाने के लिए। कंपनी का दावा है कि हौंडा राइडिंग कंडिशन में इसकी माइलेज अब 62 किमीप्रतिलीटर हो गई है। चार रंगों में फ़िलहाल आई है और इसके दो वेरिएंट हैं। स्टैंडर्ड वेरिएंट जिसकी क़ीमत है 69, 350 रु और CBS वेरिएंट 74,414 रू । दोनों दिल्ली में एक्स शोरूम क़ीमत है। 
यूनिकॉर्न स्टैंडर्ड 69 हज़ार रु यूनिकॉर्न CBS वेरिएंट 74 हज़ार रु (दिल्ली में एक्स शोरूम क़ीमत)

हौंडा अपनी रणनीति के मामले में काफ़ी आक्रामक हो चुकी है। एंट्री सेगमेंट में अपनी युगा को लेकर वो जोश में है, जिसके कई अलग अलग वर्ज़न उतारे जा चुके हैं। कंपनी ने ऐसे ही बड़ी मोटरसाइकिलों के सेगमेंट में भी अपने प्रोडक्टस को रिफ्रेश किया है। और अभी तक हौंडा के लिए बेस्टसेलर रहे स्कूटरों को भी कंपनी ने उसी आक्रामकता के साथ नया किया है। 
HMSI यानि हौंडा मोटरसाइकिल्स और स्कूटर इंडिया लिमिटेड की फ़ैक्ट्री से निकलने वाली सबसे पहली मोटरसाइकिल रही है यूनिकॉर्न । ज़ाहिर है कंपनी के लिए ख़ास है ये। जो अपनी स्मूद राइड के लिए जानी जाती है। नए जेनरेशन की टेस्ट राइड करने का वक्त आ गया है

December 21, 2014

चलने का हक़ लीजिए वापस

दिल्ली पुलिस की कोशिश, फ़ुटपाथ पर क़ब्ज़े की तस्वीर भेजिए 8750871493 नबर पर 

ये वो वक्त है जब आपको थोड़ा ज़ोर लगाना पड़ेगा, क्योंकि आपको जिस आदत, सोच और सामाजिकता को बदलना है, वो सालों से जमी, बहुत पुरानी गहरी सोच है। ये दूसरों के साथ ख़ुद को बदलने का भी वक़्त है। चलने का और चलने देने का वक़्त है। इसे बदलने के लिए कोशिश भी लंबी ही होगी, क्योंकि ये हमारी आदत में गहरा बैठ गया है। जब हम गाड़ी चलाना शुरू करते हैं तो पैदल यात्रियों को रुकावट मानते हैं और ये भूल जाते कि जब हम पैदल निकलते हैं तो गाड़ियों की मनमानी कितना परेशान करती है। और इस फ्रिक्शन के बीच तनाव इतना बढ़ जाता है कि पैदल और गाड़ी वाला दोनों ही आपा खो देते हैं। बिना ये समझे हुए कि हमारी ट्रैफ़िक व्यवस्था एक ऐसे दुश्चक्र में चला गया है जिसे रोकना बड़ी चुनौती है। इसी का नतीजा है कि हर दिन की शुरुआत अब सड़कों पर "दिखाई नहीं देता" "अंधा है क्या" "किनारे क्यों नहीं चल सकता है" "ख़ुदकुशी का शौक़ है क्या " जैसे डायलोग से होती है। और शुरुआत ऐसी होगी तो पूरा दिन कैसा होगा इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
अब थोड़ी तसल्ली से देखिए तो पता चल जाएगा कि ये दुश्चक्र दरअसल काफ़ी सीधा सरल है। 
"साल 2013 में दिल्ली में कुल 749 पैदल यात्रियों ने अपनी जान गंवा दी, सड़क हादसों में मारे जाने वालों में से 41 फ़ीसदी पैदल यात्री हैं "

पहला हिस्सा है फ़ुटपाथ। भर की सड़कों को देखें तो आपको पता चलेगा कि कहीं पर भी फ़ुटपाथ नहीं हैं। फ़ुटपाथ हैं भी तो या तो उन पर रेहड़ी वालों ने क़ब्ज़ा कर लिया है या कूड़ेदान में इस्तेमाल हो रहा है या फ़ुटपाथ इतने ऊंचे हैं कि चढ़ना और उतरना नामुमकिन या फिर ऐसी टूटी फूटी हालत में है जिसपर चलना नामुमकिन होता है। तो इसका नतीजा - पैदल सड़कों पर।
दूसरा हिस्सा ये कि जब पैदल सड़कों पर चलेंगे तो गाड़ियां कहां जाएंगी ? और यहीं पर आकर ऐसा तनाव और ऐसी टकराव होती है जो हम रोज़ झेलते हैं। और इस टकराव का नतीजा क्या होता है ? सालाना 15 हज़ार के आसपास पैदल यात्रियों की मौत। जिसमें ये समझने वाली बात है कि इन मौत के पीछे केवल गाड़ियों की ग़लती नहीं होती है। ग़लती चाहे ड्राइवर की हो, पैदल यात्री की हो या फिर प्रशासन की, नतीजा भुगतते हैं पैदल यात्री ही। सबसे असुरक्षित रोड यूज़र इसीलिए कहा जाता है इन्हें।
तीसरा हिस्सा ये कि सड़क पर दिन पर दिन बढ़ते ख़ौफ़ और असुविधा के चलते लोग अब हर क़ीमत पर पैदल चलने से बच रहे हैं। कार नहीं तो स्कूटर का इस्तेमाल कर रहे हैं। अब सुबह की सैर से लेकर सब्ज़ी लाने तक के लिए मिडल क्लास कार या स्कूटर पर जा रहा है। यानि पैदल यात्री ये मान बैठे हैं कि अब सड़क पर उनकी जगह नहीं रही है। लेकिन उन लोगों का क्या जिनकी मजबूरी है पैदल चलना, देश की तीस फ़ीसदी आबादी। जिसके पास अपनी कार या टू व्हीलर नहीं है। उनका क्या ? उनका हश्र हम देख ही रहे हैं।
 
हाल ही में दिल्ली में पैदल यात्रियों की मौत के आंकड़े आए हैं। जो चौंकाने वाले है, लेकिन कम ही लोग चौंक रहे हैं। साल 2013 में दिल्ली में कुल 749 पैदल यात्रियों ने अपनी जान गंवा दी। दिल्ली की ट्रैफ़िक, ग़ैरज़िम्मेदार ड्राइवर, लोगों की लापरवाही और ख़राब रोड डिज़ाइन ने साढ़े सात सौ परिवारों को ज़िंदगी भर का दुख दे दिया। और सोचिए दिल्ली में हालत कितनी ख़राब है कि सड़क हादसों में मारे जाने वालों में से 41 फ़ीसदी पैदल यात्री हैं। जबकि देश भर में ये औसत दस फ़ीसदी से कुछ ही ऊपर है।
अब दिल्ली ट्रैफ़िक पुलिस कुछ कोशिश कर रही है। पुलिस ने लोगों से फिर से फ़ुटपाथ पर हक़ जताने की अपील की है। और ये भी कहा है कि जहां भी फ़ुटपाथ पर किसी तरीके की बनावटी रुकावट, क़ब्ज़ा या पार्क की गई गाड़ियां देखें उसे नज़रअंदाज़ ना करें। उसके फ़ोटो खींचे और ट्रैफ़िक पुलिस के फ़ेसबुक पेज या वाट्सऐप पर भेजें। इसलिए लिए मोबाइल नंबर भी दिया गया है 8750871493 ।
ज़रूरत है सभी शहरों में अभी से इस तरह की मुहिम शुरू की जाए, लोगों की सोच बनाई जाए। अगर आज हम ये कोशिश नहीं करेंगे तो फिर आने वाले कल में ये समस्या ऐसी शक्ल ले लेगी जिसका अंदाज़ा लगाना आज से कुछ साल पहले नामुमकिन था।
कुछ लोगों ने पैदल चलने की कोशिश की है राहगिरि के नाम से और देश के कई हिस्सों में रविवार की सुबह अब गाड़ियों का चलना बंद करवा कर शहर के किसी एक कोने में पैदल चल रहे हैं। सभी शहरों में चलने की ऐसे हक़ को वापस लेने की ज़रूरत है, और दिन के चंद घंटे नहीं, चौबीस घंटे।

Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है।

गाड़ी शाही- सर्विस नहीं


भारत में लग्ज़री कारों की बिक्री कैसे बढ़ रही है ये किसी से छुपा नहीं है। सड़कों पर मर्सेडीज़, बीएमडब्ल्यू और ऑडी की संख्या इतनी बढ़ चुकी है कि एक वक्त में इन कंपनियों की हर कार को शाही कार मानने वाली सोच भी अब जाती नज़र आ रही है। और ना सिर्फ़ आम लोगों में ये सोच झलक रही है बल्कि ग्राहकों में भी। अब इन कारों के ग्राहक भी ख़ुद वैसा शाही महसूस नहीं कर रहे हैं।

पिछले एक साल में लग्ज़री कारों की बिक्री लगभग दुगनी बढ़ी है। 2013 में लगभग 16 हज़ार कारें बिकी थीं, वहीं इस साल 35 हज़ार से ऊपर कारें, ज़ाहिर है इस बढ़ोत्तरी का दबाव कंपनियों के डीलरशिप और वर्कशॉप पर भी दबाव बढ़ा है। और इस दबाव का असर ग्राहकों की संतुष्टि पर भी पड़ा है जिसे मापने का काम करती है जे डी पावर एशिया पेसिफिक। जिसके 2014 के लग्ज़री सेगमेंट के कस्टमर सर्विस इंडेक्स स्टडी में यही बातें सामने आई हैं। 

कंपनी ने लग्ज़री कारों के 257 ऐसे ग्राहकों से बात की, जिनमें एक से दो साल पुराने मर्सेडीज़, ऑडी और बीएमडब्ल्यू ग्राहक थे। स्टडी में पूछा गया कि सर्विस की क्वालिटी, गाड़ी के पिकप, सर्विस एडवाइज़र, सर्विस फेसिलिटी और सर्विस की शुरूआत से। इन सब पैमानों के लिए अलग अलग अंक दिए गए थे और सभी कंपनियों को कुल हज़ार प्वाइंट के स्केल पर मापा गया। और इस पैमाने पर पिछले साल के मुक़ाबले ग्राहकों कम संतुष्ट हैं। सर्विसिंग की शुरूआत और फेसिलिटी को लेकर ग्राहक सबसे नाख़ुश थे। जिन रेटिंग में पिछले साल के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा गिरावट दर्ज की गई।

इन सबका मतलब ये है कि ग्राहकों को सर्विसिंग के लिए अब पहले से ज़्यादा इंतज़ार करना पड़ता है। सर्विस होकर गाड़ी तैयार होने में भी वक्त ज़्यादा लगता है। ग्राहकों को इस देरी के बारे में सही जानकारी नहीं दी जाती।

इस स्टडी में नंबर एक पर मर्सेडीज़ रही, दूसरे पर बीएमडब्लूय और तीसरे पर ऑडी रही। 

*Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है

November 18, 2014

कौंपैक्ट सेडान में एक्सेंट

कुछ गाड़ियां ऐसी हैं जिन्हें देखकर कम लोग रुकते हैं, या देखने के लिए कम लोग रुकते हैं, उनमें से एक हैं कौंपैक्ट सेडान सेगमेंट की कारें। किसी भी टेस्ट ड्राइव के वक्त ये दिलचस्प ऑबज़र्वेशन होता है, किस नई कार या सवारी को देखकर कैसी प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। सुपरबाइक को तो पूछिए मत, कोई एसयूवी हो तो भी काफ़ी दिलचस्पी होती है, नई छोटी हैचबैक कारों के लिए भी अक्सर बहुत उत्सुकता देखने को मिलती है सड़कों पर, लेकिन आमतौर पर छोटी सेडान कारों में शायद वो ग्लैमर या अपील नहीं कि नाहक ही कोई रुक कर उन्हें देखे। हां वो ज़रूर रुकते हैं जो इस सेगमेंट की कार के बारे में सोच रहे हैं। और ये देखकर इस सेगमेंट के बारे में छोटा सा कन्क्लूज़न तो निकाला ही जा सकता है। वो ये कि यहां पर ग्लैमर या अपील भले ही ना हो लेकिन प्रैक्टिकल ज़रूर हैं। इसीलिए हम देख रहे हैं कि इस सेगमेंट में तीस फीसदी से  थोड़ी ही कम बढ़ोत्तरी देखने को मिली थी पिछले साल, और हर महीने इस सेगमेंट में लगभग 24-25 हज़ार कारें बिक रही हैं। जहां पर एक चतुराई से शुरू हुआ सेगमेंट लगातार बढ़ता गया और ग्लोबल कंपनियों ने उसके हिसाब से अपनी स्ट्रैटजी बदली और आज भी हम नए नए प्रोडक्ट इसमें देख रहे हैं। ह्युंडै एक्सेंट उसी कड़ी में अगली कार है। जिसे ग्रैंड आई 10 के प्लैटफॉर्म पर कंपनी ने बनाया और अब जब से लौंच हुई है तब से एक महीने में 11 हज़ार बुकिंग पा गई। ये ह्युंडै के लिए तो बढ़िया ख़बर है ही, साथ में इस सेगमेंट के बारे में भी साफ़ हो रहा है कि नए प्रोडक्ट की गुंजाईश अभी भी है। नई एक्सेंट को चलाने का मौक़ा जब मिला तो इसी सबसे जुड़ा सवाल था कि जिस सेगमेंट में डिज़ायर और अमेज़ का राज है वहां पर और क्या गुंजाईश बची है किसी कार के लिए। 
एक्सेंट को पहली नज़र में देखिए और आपको ग्रैंड आई 10 की याद आएगी। बुनियाद तो है ही। चेहरा मोहरा बिल्कुल वही है। ह्युंडै की फ़्लूइडिक डिज़ाइन फ़िलॉसफ़ी के तहत जो भी कारें आई हैं, आकर्षक रही हैं। भीड़ से अलग दिखती हैं। ऐसे में एक्सेंट भी उसी परिवार का हिस्सा लगेगी। लेकिन हैचबैक से सेडान बनी कारों में हम पिछले हिस्से पर ज़्यादा ध्यान देते हैं कि डिक्की लगाते लगाते कार को बदसूरत तो नहीं बना दिया गया है, या फिर कार उटपटांग तो नहीं दिख रही है। और ऐसे में कहूंगा कि डिज़ाइनर ने अच्छे तरीके से बूट यानि डिक्की को अगले हिस्से से मिलाया है। मुझे बहुत ख़ूबसूरत तो नहीं लगी लेकिन देखने में ठीक लगती है। हां ये भी याद रखने वाली बात है कि ह्युंडै इसके बूटस्पेस के बारे में बता रही है कि ये सेगमेंट में सबसे ज़्यादा बूटस्पेस के साथ आने वाली कार है। 
और जगह के मामले में कार के अंदर भी मामला अच्छा ही है। पिछली सीट पर जगह काफ़ी अच्छी सी है, जिसे लेगरूम और नी रूम कहते हैं। छोटी कार होने के हिसाब से पैर रखने के लिए ठीक ठाक जगह। दो लोग आराम से, तीन लोग थोड़े कम आराम से बैठ सकते हैं। सीट भी ठीक ठाक आरामदेह है। जिस डीज़ल वेरिएंट को मैंने चलाया वहां पर पिछली सीट के लिए रियर एसी वेंट दिया गया था। तो ये इस सेगमेंट के हिसाब से एक्सक्लूसिव आरामदेह फ़ीचर। अगली सीट या ड्राइवर सीट पर जाकर एक्सेंट सबसे प्रभावशाली लगती है। जहां ग्रे और भूरे रंग में मिलाकर बनाए डैश के बीच में अच्छे डिज़ाइन के साथ कार के बटन, नॉब, और एसी वेंट को पेश किया गया है। म्यूज़िक के लिए ऑक्स इन और यूएसबी पोर्ट भी दिया गया है। यहां पर आपको आकर कार अपने सेगमेंट से बेहतर प्रीमियम लुक और फ़ील देगी। स्टीयरिंग पर आपके लिए म्यूज़िक के साथ मल्टीमीडिया कंट्रोल दिया गया है। तो इस फ्रंट पर कार लोडेड है। 
जब आप चलाना शुरू करते हैं कार को तब लगता है कि आप किस सेगमेंट की कार को चला रहे हैं। इसके ड्राइव में रोमांच नहीं प्रैक्टिकैलिटी महसूस होगी। ज़ाहिर है कार का मक़सद भी यही होना है। ग्राहकों की नज़र में इसमें लगे 1.1 लीटर डीज़ल इंजिन से कार की निकलने वाली साढ़े 24 किमीप्रतिलीटर की माइलेज को ज़्यादा तरजीह दी जाएगी बजाय इससे निकलने वाली बीएचपी को। या फिर टॉप स्पीड को। जो इसे फ़ैमिली कार बनाए बजाय स्पोर्ट्स कार बनाने के। तेज़ रफ़्तार पर हैंडलिंग में बेहतरी की गुंजाईश है लेकिन मोटे तौर पर आम ड्राइविंग हालात में कार की ड्राइव संतोषजनक कही जाएगी। 
तो इस व्यवहारिक पैकेज को ह्युंडै ने अमेज़ और डिज़ायर से सस्ते में पेश किया है। इसके पेट्रोल वर्ज़न में मैन्युअल और ऑटोमैटिक विकल्प भी हैं, एक्स शोरूम क़ीमत चार लाख 66 हज़ार से 7 लाख 20 हज़ार रु के बीच है। वहीं डीज़ल वर्ज़न की एक्सशोरूम क़ीमत लगभग पांच लाख 66 हज़ार से सवा सात लाख के आसपास है। इसकी शुरूआती क़ीमतें अमेज़ और डिज़ायर से कम हैं। यानि लड़ाई ने नया मोड़ ले लिया है। जंग और बढ़ेगी जब कुछ और प्रोडक्ट यहां आ जाएंगे।


((कुछ वक़्त पहले छपी..))

November 12, 2014

क्या चीज़ है ये मार्केज़ !!!


कोई बहुत ज़ोरदार फॉलोवर नहीं हूं मैं मोटरस्पोर्ट्स का। मोटरस्पोर्ट्स की दुनिया में क्या चल रहा है ये नज़र रहती है, रखनी भी पड़ती है…लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मैं फ़ॉर्मूला वन के एक-एक पल के बारे में पूरी जानकारी रखता हूं, रेसरों की ज़िंदगी और रेसिंग से जुड़े एक एक पल, उनकी कहानियों और किंवदंतियों के बारे में बहुत डीटेल में जाने का वक़्त नहीं मिल पाता है। लेकिन ऐसा नहीं कि इस मसरूफ़ियत के बीच मैं वो पल भूल जाऊं कि कैसे मैंने वैलेंटीनो रॉसी से मुलाक़ात की थी और कैसे उसके साथ फ़ोटो खिचाया था। कैसे इस इंटरव्यू या मीडिया की भाषा में कहें तो इंटरऐक्शन के बीच जॉन अब्राहम किनारे से हो गए थे। वो मौक़ा था यामाहा के एक ईवेंट का जब यामाहा की मोटो जीपी टीम के राइडर, मोटरसाइकिल रेसिंग के सबसे सनसनीख़ेज़ सितारे वैलेंटीनो रॉसी और भारत में यामाहा के ब्रांड एंबैसेडर जॉन अब्राहम एक साथ कुछ प्रेस टीम से मिले थे। रॉसी उससे पहले भी पसंद था और आज भी पसंद है। उसकी सफलता के ऊपर नज़र रहती है और असफलताओं से थोड़ी निराशा भी होती है। एक रेसर जिसने मोटो जीपी यानि मोटरसाइकिलों की रेसिंग की दुनिया के लिए वो किया जो शायद हमारे जेनरेशन में माइकल शूमाकर ने फ़ॉर्मूला वन के लिए और सचिन ने क्रिकेट के लिए किया। रेस सर्किट में रॉसी की दिलेरी आजकल यूट्यूब पर आराम से देखी जाती है। आप में से जो मोटो जीपी रेसिंग की दुनिया से परिचित हैं उन्हें पता ही होगा कि रॉसी फिर से यामाहा की टीम के लिए रेस करते हैं, इस बीच में वो डुकाटी की टीम से हो आए हैं। हालांकि रॉसी के इर्द गिर्द की कहानियों में अब वो चुलबुलापन, सनसनी नहीं जैसे पहले थी। हाल में वो चार साल बाद पोल पोज़ीशन ले पाए। और फिर भी रेस में और चैंपियनशिप में दूसरे नंबर पर ही रहे। और पहले नंबर पर है वो शख़्स जिसने मोटरसाइकिल रेसिंग में वो कर दिखाया है कि सब भौंचक्के हैं, रिकॉर्ड पर रिकॉर्ड बनाता ऐसा नौजवान जिससे भिड़ने के बारे में फ़िलहाल ख़ुद रॉसी भी नहीं सोच सकता है। 
वो है मार्क मार्केज़। 
ये स्पेनिश राइडर एक ऐसा अजूबा है कि रिकॉर्ड की किताबें रंग दी गई हैं, रेस के जानकार भौंचक्के हैं और रॉसी जैसा रेसर इसे अपना बैड लक कह रहा है, जो उसे चैंपियनशिप ये जीत से इतनी दूर किए हुए है कि रॉसी बेबस दूर खड़ा है। 
मार्क मार्केज़। 

जब से मैंने ये नाम सुना तब से उसके नाम के साथ लोगों को यही कहते सुना है - आख़िर ये चीज़ क्या है मार्केज़ ? जिसने 2008  से हिला के रखा हुआ है मोटरसाइकिल रेसिंग की दुनिया को। फ़िलहाल मोटोजीपी का लगातार दूसरे साल वर्ल्ड चैंपियन है। जब आप खोजने जाएं तो पता चलेगा कि ये वो राइडर है जिसने सबसे कम उम्र में जीतने के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। एक से एक नए रिकॉर्ड बना दिए हैं। 1993 में पैदा मार्केज़ ने पहली बार 125 सीसी कैटगरी में क़दम रखा, जब उसकी उम्र पंद्रह साल से थोड़ी ही ऊपर थी। और तब से लेकर अब तक इस रोमांचक दुनिया को और हिलाया हुआ है। 20120 में 125 सीसी वाले कैटगरी में वर्ल्ड चैंपियन बना। 2012 में मोटो २ का वर्ल्ड चैंपियन, अब 2013 और 2014 का मोटोजीपी वर्ल्ड चैंपियन बना हुआ है। मोटोजीपी में भी सबसे कम उम्र में जीत हासिल करने वाला राइडर बना ये। तो ये सब रिकॉर्ड काफ़ी हैं समझाने के लिए कि इसकी काबिलियत क्या है। क्या इसका टैलेंट है और क्या ये आने वाले वक्त में कर सकता है।
फ़िलहाल मार्केज़ हौंडा रेप्सॉल रेसिंग टीम का राइडर है। तो एक वक्त में अपनी तेज़ी और ड्रामा की वजह से जैसे रॉसी नामी था, वैसे ही मार्केज़ के बारे में भी दुनिया बात कर रही है लेकिन इसमें तेज़ी ज़्यादा है ड्रामा कम है। तो आपमें से  किसी की भी थोड़ी भी दिलचस्पी है मोटरसाइकिल रेसिंग में तो इस नाम को याद रखिएगा। अगले सीज़न में भी नज़र रहेगी इस नौजवान पर जिसने रफ़्तार पकड़ी हुई है। 93 नंबर की बाइक पर नज़र रखिएगा आप लोग भी।

September 30, 2014

ये दिल्ली दिलवालों की नहीं...

इस नई दिल्ली से बाहर वालों को नहीं ख़ुद यहां के बाशिंदों को अब डर लग रहा है। अमीर बाप के बिगड़े औलादों से और बिगड़े बाप के अमीर औलादों से भी। 

घटना नंबर एक। 
पिछले शनिवार को मूलचंद के पास के पेट्रोल पम्प पर गाड़ी में तेल भरवाने गया। शनिवार की शाम का वक़्त जब पेट्रोल पंपों पर रौनक़ लगी रहती है। जहाँ दिल्ली के पार्टी पीपल क़रीने से कपड़ों में इस्त्री करके, बालों को सँवार कर, सँभल कर गाड़ियों में तेल भरवाते दिखाई देते हैं। जिससे वीकेंड के उनके पार्टी प्लान पर तेल के छींटें या ग्रीज़ का दाग़ ना लगे। कौरेस्पोंडेंस कोर्स से फ़ैशन की पढ़ाई करने वालों के लिए अच्छी जगह हो सकती है, समझने के िलए कि आजकल पोलो पैंट चल रहा है कि जोधपुरी। आई शैडो के शेड पर शोध की भी गुंजाइश। लेकिन मेरे पास काम था। तो जल्दी वापस ऑफ़िस जाना था। ख़ैर, मेरी कार की बारी भी आई, तेल भराने लगा। और इसी बीच अचानक तू-तू मैं-मैं की आवाज़ सुनाई दी। मैंने भी तेल भरने वाली मशीन के मीटर से अपना ध्यान तुरंत उस कोने पर लगा दिया जिधर चिल्लपों मचा हुआ था। लेकिन किसी असली ऐक्शन नहीं दिख रहा था क्योंकि ये सब हवा भरवाने वाली लाइन में हो रहा था और वो ओट में था। और फिर हाथापाई-थप्पड़ की भी आवाज़ सुनाई दी। ऐसे में तेल भरवाने वाले सभी ड्राइवर, भरने वाले सभी कारिंदे लालायित हो गए कि जल्दी से लड़ाई देखने के लिए बढ़ा जाए। एक नए तमाशे की उम्मीद से भरे थे हम सब। लेकिन जबतक मैं आगे बढ़ा, मामला मद्धम सा लगा। देखा एक टैक्सी ड्राइवर, अपनी इनोवा की खिड़की के रास्ते उतरने की कोशिश सा करता, आधे मन से चिल्लाता-गलियाता लगा। शायद उसी को थप्पड़ पड़ा। लेकिन दूसरी पार्टी नज़र नहीं आ रही थी। कि अचानक दिल्ली का फ़ेवरेट मौलिक आध्यात्मिक प्रश्न गूँजा- "तू जानता नहीं मैं कौन हूँ " और ये उसी ड्राइवर को संबोधित लगा। घूम कर देखा तो एक स्मार्ट सा आदमी हाथ में चमकती रिवोल्वर लहराता ये उद्घोष कर रहा था, चमकती-नक्काशी की हुई रिवॉल्वर। जो उस आदमी के फ़ैशन से मेल खाता लग रहा था, डिज़ाइनर दिल्ली वाले की डिज़ाइनर रिवॉल्वर। जिसे उस शख़्स ने अपनी पैंट में पीछे खोंसा और फिर सफ़ेद ह्युंडै में बैठ गया। और मैं आधे सेकेंड के लिए सोच में पड़ा कि आख़िर टायर में हवा भरवाने को लेकर क्या ऐसा बवाल हो सकता है कि कोई रिवॉल्वर निकाले? फिर मेरे पीछे वाले लोगों ने हॉर्न बजाना शुरू किया तो मैं भी आगे निकल गया।  
घटना नंबर दो। 
फिर से मैं पेट्रोल पंप पर। और इस बार मैं कार लेकर लाइन में खड़ा हुआ, हवा भरवाने के लिए । ये ग्रेटर कैलाश का इलाक़ा, शहर का पॉश, अमीर, पढ़ा लिखा इलाक़ा, लेकिन संभ्रांत ? नहीं । वो इलाक़ा जहां पर कारें पेट्रोल डीज़ल पर नहीं अहंकार पर चलती हैं। दिल्ली के कई संपन्न इलाक़ों की तरह यहां भी पढ़े-लिखे अनपढ़ की अवधारणा को समझा जा सकता है। तो इस पेट्रोल पंप पर क़तार में मेरे से आगे एक बुज़ुर्ग थे। उम्र काफ़ी लेकिन छरहरे, फ़िट से। रिटायर्ड आर्मी टाइप के लग रहे थे। और वो बड़े करीने से कार से उतर कर, चारों टायरों में हवा भरवाने के अलावा कार की डिक्की खोलकर भी खड़े थे कि स्टेपनी में भी हवा भरवा लें। और तुरंत पीछे एक सफ़ेद बीएमडब्ल्यू कार आकर रुकी। और अपनी तेज़ आवाज़ वाली कर्कश हॉर्न को दबाया। जिसे दिल्लीवालों की आदत समझ कर नज़रअंदाज़ किया जा सकता था। यहां पर वैसे भी ब्रेक दबाते ही लोग हॉर्न बजाते हैं। लेकिन उस ड्राइवर ने फिर से बजाया। आमतौर पर ड्राइवरों को इतनी जल्दी होती है लेकिन मैंने शीशे में देखा कि अपनी गर्लफ़्रेंड के साथ बैठा नौजवान उस बुज़ुर्ग की रफ़्तार से उकता कर हॉर्न बजा रहा है। मतलब कह रहा है कि जल्दी बढ़ो आगे। उसे कहीं पहुंचने की जल्दी थी या नहीं पता नहीं। लेकिन उसे इस क़तार में नहीं खड़ा होना था। उसे इंतज़ार नहीं करना था। 
घटना नंबर तीन। 
रात के एक बजे ऑफ़िस से घर के लिए निकला और ग्रेटर कैलाश के एन ब्लॉक के बाज़ार सामने से गुज़र रहा था। आमतौर पर शुक्र शनि की रात काफ़ी रौनक होती है इस सड़क पर जब मैं निकल रहा होता हूं। और रौनक के जितने मतलब निकाले जा सकते हैं वो सब यहां देखने को मिलता है। वो वक्त जब पब और रेस्त्रां बंद होने के बाद पार्टी-पीपल निकल रहे होते हैं, कुछ सड़क पर झूम रहे होते हैं जिनसे बच कर गाड़ी निकालनी होती है साथ में उनसे भी जो अपनी कारों को झुमा रहे होते हैं। कई रात पुलिस वालों के साथ तू-तू मैं मैं भी देखने को मिलता है। ख़ैर जिस ख़ास रात के बारे में मैं ज़िक्र कर रहा था उस रात ऐसे ही गुज़रते हुए फिर से गालियों की गूंज सुनाई दी और कारों की रुकी क़तार के आगे से आ रही थी। और आगे बढ़ने पर देखा कि इस बार एक ऑडी कार की खिड़की से सर निकाले नौजवान गालियां बक रहा है और ये थी सामने उल्टी तरफ़ से आती ऑल्टो कार के लिए, जिसमें एक बुज़ुर्ग जोड़ी थी, सकपकाई सी। पता नहीं ग़लती किसकी थी कि दोनों कारें ऐसे आमने सामने फंसी थीं, लेकिन ६० से ऊपर के उस जोड़े को,इतनी देर रात ऐसी सड़क पर देखकर किसी को भी दया आ जाए। 

ये दिल्ली है। और जितना ज़्यादा वक़्त सड़कों पर ड्राइव करते गुज़र रहा है, उसके बाद यही लग रहा है कि यही दिल्ली है। जहां सड़कों पर एक मान्यता प्राप्त जंगल राज है, जो क़ानून व्यवस्था के दायरे से दूर, यहां के लोगों के मनों में है। जो ट्रेंड उन हादसों से भी ज़्यादा हिंसक लगने लगे हैं जिनमें दरअसल दो हज़ार दिल्ली वाले अपनी जान गंवा देते हैं। वैसे ही मुंबई-बैंगलोर के दोस्त दिल्ली की बेरुख़ी और अग्रेशन से डरते-मज़ाक उड़ाते हैं, अब तो हालत और ख़राब होती लग रही है।  वो उजड्डपना और लंपटपना जो मारुति-ह्युंडै, बीएमडब्ल्यू-ऑडी, प्राइवेट और टैक्सी की सीमाओं को पार करता एक जैसा पूरे शहर पर पकड़ बना रहा है। जिसे रोड रेज के नाम से जाना जा रहा है, वो रेज जो रोज़ की बात हो गई है। जहां-तहां बीच सड़क पर रुकती गाड़ियां और फिर  उनमें से आस्तीन समेटते निकलते लोगों की आपस में बहसबाज़ी और गाली गलौज होते देखना दिल्लीवालों की आदत बन गई है। कई हॉर्न दबा कर बैठ जाते हैं, और उस प्रेशर हॉर्न की आवाज़ भी कम लगने लगती है तो फिर  चिल्लाने भी लग रहे हैं। अपने दोस्तों सहकर्मियों से ज़िक्र करो तो उनका एक ही डर होता है कि पता नहीं किस बात पर लोग बंदूक निकाल लें। बुज़ुर्ग, महिला या बच्चों की मौजूदगी भी नहीं शांत करती है इन लोगों को। 'दिल्ली दिलवालों की’ जैसे जुमले पहले भी शक के घेरे में थे अब तो और भी बेमानी लगते हैं। इस बेदिली का कोई भी मोटर वेह्किल ऐक्ट हार्ट ट्रांसप्लांट नहीं कर सकता । इस नई दिल्ली से बाहर वालों को नहीं ख़ुद यहां के बाशिंदों को अब डर लग रहा है। अमीर बाप के बिगड़े औलादों से और बिगड़े बाप के अमीर औलादों से भी। 

July 12, 2014

बजट में रोड सेफ़्टी के लिए कुछ कहा क्या ????

( जब सड़कों को चौड़ा करने, कॉरीडोर बनाने, इंफ़्रास्ट्रक्चर बेहतर करने पर ज़ोर दिया जा रहा था, लगा कि ये सरकार कुछ ऐसे ऐलान करेगी जो इतने सालों से कांग्रेस ने नहीं किया था, रोड सेफ़्टी के लिए कुछ पैसे निकालेगी, १०० करोड़ वाले २९ प्रोजेक्ट हो ही चुके थे, ३० भी हो सकते थे !! कुछ इशारा तो करते, ज़िक्र तो करते कि जिन सड़क हादसों की वजह से कहा जाता है सालाना सवा लाख लोग मारे जाते हैं, जीडीपी का दो-ढाई फीसदी का नुक़सान करता है, उस पर भी कुछ पॉलिसी टाइप की बात करते, उस बहस में नहीं जा रहा कि महिला सुरक्षा के लिए इतना और पटेल की मूर्ति के लिए इतना...कमसेकम सोच तो दिखा देते ? थोड़े दिन पहले ये कॉलम लिख रहा था तो लग रहा था कि बजट के वक्त कुछ ऐसा सुनाई दे जाए, आख़िर एक मंत्री की मौत हुई थी, किसी आम हिंदुस्तानी की नहीं...तब तो चिंता होनी चाहिए थी ?? ) 


हाल में एक मौत ने फिर से हमारे सामने ये सवाल खड़ा कर दिया है जिसे हम बार बारे उठाने की कोशिश करते हैं लेकिन जवाब नहीं मिल रहा है। वो ये कि कब तक हिंदुस्तानी
सड़कें दुनिया की सबसे ख़ूनी सड़कें बनी रहेंगी। कब तक हम रोड सेफ़्टी को इतने हल्के में लेते रहेंगे, कब तक हिंदुस्तानियों की जान की अहमियत को इतना कम आंकते रहेंगे।
अलग अलग आंकड़ों का औसत भी लें तो देश की सड़कों पर हर साल सवा लाख से ज़्यादा लोग अपनी जान सड़क हादसे में गंवा देते हैं। और अब तक अगर सरकारों का रवैया देखें तो लगेगा कि इन जानों की फ़िक्र सरकार को नाम मात्र की ही है, कागज़ों में, ख़ानापूर्ति में। लेकिन सड़क हादसे में एक मंत्री की मौत के बाद अचानक लग रहा है कि तस्वीर शायद बदले।
अचानक सा लगने लगा है कि इस बार शायद कुछ अलग है, सवा लाख मौत पर जैसा रवैया अब तक सरकारों का देखने को मिलता रहा है,पता नहीं क्यों उम्मीद हो रही है, या कमसेकम ऐसा लग रहा है कि अब चारों ओर से चर्चा शुरू होगी, कोशिशें शुरू होंगी समाधान निकालने की और कुछ ठोस क़दम उठाए जाएंगे। लोगों की जान की क़ीमत समझी जाएगी, ट्रैफ़िक सेफ़्टी नियमों को लागू करने में कड़ाई बरती जाएगी, सड़कों के डिज़ाइन की ख़ामियां दूर की जाएंगी और सेफ़्टी को सबसे बड़ी प्राथमिकता माना जाएगा।
इस उम्मीद की वजह साफ़ है, एक तो इस बार किसी आम आदमी या नेता की हादसे का शिकार नहीं हुआ है। इस बार हादसे में मौत एक मंत्री की भी हुई है। और हादसे की तस्वीर लगभग वैसी ही, जैसी हमें हर रोज़ देखने की आदत है। क्रॉसिंग से गुज़रती दो गाड़ियां, एक की रफ़्तार ज़्यादा, कोई एक लापरवाह और कोई बेपरवाह। नतीजा मौत। इस बार दिल्ली के चौराहे पर ऐसा देखा गया है।
दूसरी वजह है सरकार का नया होना। अभी जिस तरीके से सालों बाद फिर से सरकार में आई एनडीए में जोश दिख रहा है, कई मुद्दों पर सकारात्मक ऐलान सुनने को मिले है, हालांकि कार्रवाई का इंतज़ार है, उसे देखकर लग रहा है कि गोपीनाथ मुंडे के निधन के बाद सरकार कुछ क़दम उठाए, जिससे सड़कें ज़्यादा सुरक्शित हों।
सबसे अहम तो ट्रैफ़िक नियमों का पालन ही है। ये समझते हुए कि सभी हाईवे, सड़कों या चौराहों पर ट्रैफ़िक पुलिस को तैनात करना नामुमकिन है। हर स्पॉट पर पुलिस कर्मी हों तो भी ज़रूरी नहीं कि सभी नियम तोड़ने वाले उनकी नज़र में आ जाएं, या वो सभी को पकड़ पाएं। तो इसका समाधान टेक्नॉलजी ही हो सकती है। जहां सबसे पहले स्पीड कैमरे लगाने की ज़रूरत है। सबसे पहले देश की उन ख़ूनी सड़कों को कैमरे से लैस किया जाना चाहिए, जहां पर रिकॉर्ड के मुताबिक सबसे ज़्यादा सड़क हादसे होते हैं। वहां पर कैमरे से लोगों पर एक अंकुश लगेगा कि वो स्पीड लिमिट को ना तोड़ें, या नियम ना तोड़ें। इससे चप्पे चप्पे पर पुलिसवालों की तैनाती से छुट्टी मिलेगी।
इसके बाद लाइसेंसिग की पूरी प्रक्रिया को फिर से देखने की ज़रूरत है। बिना काबिलियत के ड्राइविंग लाइसेंस देना बंद किया जाना चाहिए, जिसके लिए लाइसेंस से पहले ट्रेनिंग भी अनिवार्य की जा सकती है। इसके अलावा इस इलाक़े में भी टेक्नॉलजी का इस्तेमाल ज़रूरी है। लाइसेंस देने के मापदंड और प्रक्रिया साफ़ सुथरी, सटीक और पारदर्शी होनी चाहिए,जिसका एक एक रिकॉर्ड इंटरनेट पर होना चाहिए। किसे किस गाड़ी के लिए किस आधार पर लाइसेंस मिल रहा है।
सरकार की तरफ़ से एक और कोशिश दिखनी चाहिए। वो है पैदल यात्रियों की सुरक्शा और उन्हें मिल रही तरजीह। ना सिर्फ़ उनके लिए फ़ुटपाथ साफ़ करवाए जाने चाहिए, बल्कि उनके लिए सड़क पार करने के सेफ़ रास्ते बनाए जाने चाहिए।
और साथ में गाड़ियों के ड्राइवरों को याद दिलाया जाए कि पैदल यात्रियों के अधिकार क्या हैं। हादसों की सूरत में लागू होने वाले क़ानून को कड़ा करने की ज़रूरत भी है। ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने की सूरत में ज़्यादा बड़ा चालान भी, क्योंकि असल समाधान लोगों से ही आने वाला है। सड़क पर जान लेने के लिए सरकारें सड़क पर ड्राइव करने नहीं आती हैं। लोग जाते हैं, अपनी गाड़ियों के साथ, लापरवाह, बेपरवाह वो आम लोग जिनके लिए ट्रैफ़िक नियमों की कोई अहमियत नहीं है, या उन नियमों को तोड़ने में फ़ख़्र महसूस करते हैं।
वैसे लिस्ट अभी लंबी है जिनकी उम्मीद मुझे सरकार से है, और इंतज़ार भी।


Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कुछ दिनों पहले छपी थी।

July 06, 2014

ब्रांड भी थकते हैं...


ब्रिटिश चीज़ों को लेकर हिंदुस्तानियों का लगाव कुछ ज़्यादा ही है। अब चाहे इसे ग़ुलाम मानसिकता कहें, अभिजात्य वर्ग में ट्रांज़िशन का रास्ता कहें या फिर कुछ चीज़ें होती भी लगाव लायक। ऐसे में वो ब्रिटिश ना भी हों तो हमें हो सकता है वो अच्छी लगें। जैगुआर कारों के बारे ऐसी ही दुविधा मुझे लगती है। क्या ये ब्रिटिश है इसलिए हिंदुस्तानी इतने लगाव से इस ब्रांड को देखते हैं, क्या इसलिए क्योंकि दरअसल हिंदुस्तानी कंपनी टाटा ने जैगुआर लैंडरोवर को ख़रीद रखा है या फिर इसलिए क्योंकि ये कारें वाकई इतनी ख़ास और ख़ूबसूरत दिखती हैं। हो सकता है तीनों का कांबिनेशन हो, जो मुझे देखने को मिला ग्रेटर नौएडा के पास बनती सड़क किनारे खड़े नौजवानों से बात करके। जो जानते थे कि ये जैगुआर कार है, जानते थे कि कार के बोनट पर एक शेरनुमा कुछ निशान बना रहता है। और ये भी कि ये ऑडी बीएमडब्ल्यू से अलग टाइप की कार है।
तो इन सब नौजवानों और अपने सवालों से मिलने के बाद मैं निकला देखने कि जिस जैगुआर पर इतनी चर्चा हो रही थी वो दरअसल चलाने में थी कैसी और क्या ये सफल होगी उस कोशिश में जहां पर कंपनी यानि जैगुआर की नज़र है। 
ये जैगुआर एक्स एफ़ २.२ थी। जिसे चलाने निकला था और ज़ेहन में वही सवाल था कि इस सेगमेंट में जो पैमाना तीनों जर्मन कारों ने सेट किया है, जो आदत जर्मन कारों ने ग्राहकों को डाल दी, उसमें क्या कुछ नया करने की क्षमता है जैगुआर की। जिस कार को लेकर निकला वो २.२ लीटर डीज़ल इंजिन से लैस एक ऑटोमैटिक कार थी। इससे पहले इसमें ३ लीटर वाला विकल्प तो था लेकिन जैगुआर ने कोशिश की अपनी कार को छोटे इंजिन से लैस करके और क़ीमत को कम करके उन तीनों महारथियों से टक्कर लेने की जो इस सेगमेंट में राज कर रहे थे। मर्सेडीज़, बीएमडबल्यू और ऑडी। 
एक्स एफ़ मोटे तौर पर सबसे सस्ती जैगुआर कारें हैं भारत में जहां एक्स एफ़ फ़िलहाल तीन इंजिन विकल्पों के साथ मौजूद हैं। एक तो २ लीटर पेट्रोल इंजिन विकल्प है, २.२ लीटर डीज़ल इंजिन है और तीसरा ३ लीटर डीज़ल इंजिन विकल्प। 
जहां एक्सएफ़ पेट्रोल ४८.६ लाख की है वहीं एक्सएफ़ २.२ डीज़ल ४८.९ लाख रु की है। और ३ लीटर डीज़ल विकल्प सबसे महंगी ५४.९ लाख रु की है, और एक्सएफ़ २.२ 
के ज़रिए इसी प्राइस बैंड को कम करने की कोशिश की थी जैगुआर ने।
हालांकि छोटे इंजिन के बावजूद ताक़त और प्रदर्शन में कोई कमी नहीं कह सकते हैं। काफ़ी तेज़ तर्रार है, और हैंडलिंग के मामले में अपने सेगमेंट के मुताबिक प्रदर्शन ज़रूर करती है, हां स्पोर्ट्स कार जैसी नहीं कहेंगे स्टीयरिंग और सस्पेंशन के मामले में क्योंकि इसमें ज़्यादा तरजीह आराम को ही दिया गया है। तो जर्मन कारों की हैंडलिंग की आदत में ये थोड़ा अलग लगेगा, क्योंकि उनकी हैंडलिंग का स्तर थोड़ा ज़्यादा स्पोर्टी ज़रूर लगता है। लेकिन ये अलग मूड की कार है। और कार को अंदर से भी देखें तो मौजूदा विकल्पों के मुक़ाबले थो़ड़ा पुराना डिज़ाइन लगता है, बहुत हाईटेक नहीं लगेगा। फ़िनिश में एक शाही टच है लेकिन आजकल यंग होते ग्राहकों के लिए अपटूडेट लुक नहीं कहेंगे। लेकिन एक मुद्दा ये भी है कि जिनके पास पैसे हैं वो ख़र्च करने के लिए नया विकल्प ज़रूर ढूंढ रहे हैं, जर्मन ब्रांडों से एक तरह से थकान भी कह सकते है, ब्रांड भी थकते हैं, ऐसे में उनके लिए जैगुआर एक विकल्प हो सकती है। कार जो महंगी है, लेकिन ख़ूबसूरत भी हैं और ब्रांड भी ब्रिटिश है।

(Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है)

July 03, 2014

लाख रुपए माइनस !!!!!


अब ये एक बड़ी ख़बर है उन नौजवानों के लिए जो हैं थोड़ा हटके वाले सेगमेंट में। मोटरसाइकिलों के प्रेमी जो शौक़ीन भी हैं और जिन्हें बड़ी मोटरसाइकिलों का शौक़ है। उनके लिए ख़बर आकर्षक ही है क्योंकि अब २५० सीसी सेगमेंट की मोटरसाइकिलों में एक नई हलचल देखने को मिली है। और ये हलचल है उसी मोटरसाइकिल से जुड़ी जिसे हाल में मैंने चलाया था और आप सभी को जिसके बारे में बताया था। ये है सुज़ुकी की इनाज़ूमा । जिसके बारे में एक ही मुद्दा मुझे खटक रहा था और वो थी इसकी क़ीमत। तो सुज़ुकी ने लगता है सुनी और समझी है वो बात और कंपनी ने अपनी इनाज़ूमा की क़ीमत सीधे एक लाख रु कम कर दिया है। सोचिए एक लाख। जो मोटरसाइकिल साल की शुरूआत में ३ लाख १० हज़ार के आसपास उतारी गई थी उसे अब कंपनी ने २ लाख १० हज़ार के लगभग कर दिया है। और इस नए क़दम से अचानक मार्केट में कई समीकरण बदल सकते हैं। 
कंपनी ने देखा था कि शुरूआती महीनों में इनाज़ूमा को लेकर ज़्यादा गर्मजोशी नहीं थी और कंपनी को बिक्री नहीं मिल रही थी। उसकी सबसे बड़ी वजह उसकी क़ीमत ही थी तो कंपनी ने अपनी रणनीति बदली है। इस सेगमेंट में, जिसमें ज़रूरी नहीं कि केवल २५० सीसी इंजिन हों क़ीमत के हिसाब से भी, जिस तरीके से प्रोडक्ट आ रहे हैं और जितने विकल्प बढ़ रहे हैं, कंपनी को लगा कि इस कांपिटिशन में देरी करना ख़तरे से ख़ाली नहीं है। हालांकि ऐसा नहीं कि केवल क़ीमत कम करने से ही ग्राहक इसकी ओर आएंगे क्योंकि इससे सस्ती केटीएम ३९० ने सेगमेंट को हिला रखा है। लेकिन ये भी है कि सुज़ुकी की रिफ़ाइनमेंट और शांत राइड ख़ास तरीके के राइडरों के लिए पसंदीदा हो सकती है, और नई क़ीमत से कमसेकम ऐसे ग्राहकों पर सुज़ुकी ध्यान दे सकती है। 

सुज़ुकी मोटरसाइकिल कंपनी भारत में अब तक बहुत अाक्रामक नहीं रही है, कमसेकम जिस तरीके का आक्रामक रुख़ 
बाकी जापानी मोटरसाइकिल कंपनियों का रहा है वैसा नहीं रहा है और इस बार के क़दम से लग रहा है कि सुज़ुकी का मूड थोड़ा बदला है, कंपनी ने फ़ैसला जल्दी लिया है, जो बहुत ज़रूरी था भारत जैसे तेज़ मोटरसाइकिल बाज़ार में। कांपिटिशन को तेज़ी से समझना और तेज़ प्रतिक्रिया बताता है कि आप वाकई तैयार हैं या नहीं हैं। सुज़ुकी ऐसे ही कुछ संकेत दे रही है।


Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है।

गर्मागर्म ड्राइव


मौसम ऐसा ही है जहां पर हममें से हर कोई नई मंज़िल की तलाश में निकलने की सोच रहे हैं, ये बात अलग है कि छुट्टी मिले या ना मिले अपनी अपनी नौकरियों से। चलिए मान कर चलते हैं कि मौसम है गर्मियों की छुट्टी का, यानि बच्चों की छुट्टियों का तो ऐसे में ज़्यादातर प्लान करके रखते हैं, और उनमें से कई का प्लान होता है पूरे परिवार के साथ ड्राइव करके घूमने जाने का। तो ऐसे ही परिवारों के लिए ख़ासतौर पर आज सोचा कुछ लिखा जाए, वो जानकारियां जो आपके पास होती हैं लेकिन फिर भी फिर से याद दिलाने में कोई नुकसान नहीं है। वैसे गर्मियों में किसी भी तरीके के ड्राइविंग के लिए टिप्स कामके होते हैं, चाहे आप लौंग ड्राइव पर हों, या स्मॉल ड्राइव पर। परिवार के साथ हों या फिर अकेले।

सबसे पहले तो आपको अपनी यात्रा का प्लान करना ज़रूरी है। कब निकलना है, दिन के किस वक्‍त निकलना है, जिससे ट्रैफ़िक कमसेकम मिले। कौन सा रूट पकड़ना है- ये अहम मुद्दा है क्योंकि भारत में सड़कों का कंस्ट्रक्शन कैसे चलता है ये हमें और आपको सबको पता है। ऐसे में कब कहां अटक जाएं ये पता नहीं। और छुट्टी पर जाने के रास्ते ऐसे जाम मज़ा किरकिरा कर देते हैं। इसके लिए सबसे पहले तो अपने दोस्तों-सहकर्मियों से बात करें। ज़्यादातर टूरिस्ट स्पॉट पर लोगों का आना जाना लगा रहता है, और रास्तों के बारे में वो लेटेस्ट जानकारी रख सकते हैं, कईयों के रिश्तेदार दोस्त उन इलाक़ों में रहते हैं। और इसके बाद रामबाण है इंटरनेट, जाइए नेट पर और सर्च कीजिए उन हाईवे और रोड के बारे में । बहुत से ऐसे वेबसाइट और फ़ोरम हैं जहां पर लोग अपनी यात्राओं का अनुभव लिखते हैं, ज़्यादातर मौक़े पर ये अनुभव काम के होते हैं। मेरा तजुर्बा भी यही रहा है कि रास्ते की जितनी जानकारी हो, आप सफ़र के लिए उतना तैयार रहते हैं। 

फिर आते हैं आपकी कार पर। यानि गाड़ी कितनी तैयार है, लंबे सफ़र, देर तक ड्राइव, गर्मी और बुरी सड़कों के लिए। लौंग ड्राइव पर कारों की असली रगड़ाई होती है तो इसके लिए उन्हें अच्छे से तैयार भी करना चाहिए। बिना कार की तैयारी के निकलना बहुत बड़ी भूल होगी। तो इसके लिए ले जाइए वर्कशॉप पर, और चेक करवाइए ट्यूनिंग, बैट्री, बेल्ट वगैरह। किसी पाइप या रबर में कोई लीकेज तो नहीं , चेक करवाइए। ज़रूरत हो तो ऑयल चेंज करवाइए और टायर भी रोटेट करवाइए। एसी की भी सर्विसिंग नहीं करवाई हो तो करवा लीजिए। काम आएगा। एक और ज़रूरी बात, वाइपर को भी चेक कीजिए और वाइपर के साथ वाले वाशिंग के लिए भी पानी भरा होना चाहिए। बारिश हो ना हो, कई बार पहाड़ी इलाक़ों में मौसम बदलता है। वैसे भी ड्राइव के दौरान भी कभी भी शीशा साफ़ करने की ज़रूरत पड़ सकती है।

लगे हाथों लाइट्स भी चेक करवा लीजिए। हाईवे पर एक भी लापरवाही जानलेवा होती है तो बिना हर लाइट का सही तरीके से काम करना ज़रूरी होता है। शहरी ट्रैफ़िक में भले हमें अहमियत पता ना चले लेकिन हाईवे पर सेफ़्टी के लिए लाइट्स का फ़िट होना बहुत ज़रूरी हैं। 

फिर टायर के बारे में तो आपको याद होगा ही। लंबे सफ़र पर टायरों की भूमिका काफ़ी अहम हो जाती है। एक तो टायर को चेक करना ज़रूरी है। अगर ज़रूरत से ज़्यादा घिसे हुए टायर हैं तो फिर वो गर्मी में फट सकते हैं। लंबी दूरी की ड्राइविंग में एक तो पहिया गर्म होता है ऊपर से मौसम की वजह से सड़कें तपी हुई होती हैं, ऐसे में टायर में भरा हुआ हवा गर्म होकर थोड़ा फैलता है, जिसका दबाव घिसे टायर कैसे झेल सकते हैं, तो गर्मियों में टायरों का फटना आम है।और इसी वजह से दूसरा प्वाइंट भी अहम है। टायर अच्छी हालत में होने चाहिए और उनका एयरप्रेशर उतना ही होना चाहिए जितना कंपनी ने निर्धारित किया है। ज़्यादा हवा भरवाएंगे तो गर्मियों में टायरों के लिए जानलेवा हो सकता है। और इन सबको चेक करने के बाद एक और चेकिंग, वो है अापकी गाड़ी की स्टेपनी की, पांचवे टायर की। उसका स्वास्थ्य कैसा है चेक करके रखिए, ज़रूरत है तो हवा भरवा के उसे भी तैयार रखिए।

फिर इससे जुड़ा एक और प्वाइंट। चाहे दो दिन के लिए जाएं या फिर चार दिनों के लिए कितना सामान ले जाना है ये भी ध्यान रखें। बिना मतलब सामान ले जाने कोई मतलब नहीं होता है। उससे ना सिर्फ़ कार में जगह भरता है, एक्सट्रा वज़न टायर पर बेवजह दबाव बढ़ाएगा और माइलेज पर भी । तो सामान पैक करने के वक्त ध्यान रखें। जो चीज़ बिल्कुल ज़रूरी हो वही साथ में ले जाएं। 

अब बात सड़क पर ड्राइविंग की करें तो ये समझना ज़रूरी है कि हाइवे पर ड्राइविंग शहरी ड्राइविंग से बिल्कुल अलग होती है, शहर में कई बार आम ट्रैफ़िक नियमों को तोड़ने पर हम बच जाते हैं तो लगता है कि इन नियमों की ज़रूरत क्या है, लेकिन उनकी असली अहमियत हाइवे पर दिखेगी, जो नियम दरअसल जान बचाने के लिए काम में आते हैं। तो शहर की तरह आड़ी तिरछी, ग़लत ओवरटेकिंग की ग़लतियां मत कीजिए। 
फिर सेफ़्टी के इंतज़ाम भी रखें। जहां हाईवे पर हमारी औसत रफ़्तार कहीं ज़्यादा होती है, ऐसे में सेफ़्टी की ज़रूरत और बढ़ जाती है। पिछली सीट पर भी सीट बेल्ट बांध कर फ़ैमिली को बिठाइए। याद होगा कि हाल में पिछली सीट पर ही बैठे हुए हमारे केंद्रीय मंत्री की दुर्घटना में मृत्यु हुई थी। तो सेफ़्टी हर सीट पर ज़रूरी है। और ये चालान से बचने के लिए नहीं जान बचाने के लिए ज़रूरी है।
और यही सलाह फ़ोन को लेकर भी देंगे, फ़ोन का इस्तेमाल आपकी ड्राइविंग को प्रभावित करता है, चाहे आप कितने भी काबिल ड्राइवर हों। ऐसे में ज़रूरी है कि आप अपनी ड्राइव को सेफ़ बनाएं, फ़ोन का इस्तेमाल ड्राइव के दौरान ना करें।
आप घंटों लगातार ड्राइव करने से बचें। कई बार थकान होने के बवाजूद हम ड्राइव करते रहते हैं, जो ख़तरनाक होता है। तो चाय कॉफ़ी का ब्रेक, हर डेढ़ दो घंटे पर हो तो बेहतर हो।
हां ध्यान रहे, केवल चाय कॉफ़ी के लिए बियर या शराब के लिए नहीं। ये विडंबना ही है कि भारत में १ लाख ३८ हज़ार लोग सड़क हादसों में मरते हैं, जिनमें से अधिकांश हाइवे पर मरते हैं लेकिन सरकारें हैं कि हाइवे पर शराब की दुकानें खोले जा रही है खोले जा रही है। तो आप कृपया इस जाल से बचिएगा, ड्राइविंग के दौरान शराब बिल्कुल मत पीजिएगा।

एक और सुझाव है, सलाह तो नहीं दे सकता क्योंकि हर इंसान की सोच अपनी अपनी होती है। लेकिन मेरे हिसाब से एक और चीज़ ध्यान रखने वाली है हाइवे पर ड्राइव करते वक्त, वो है आपके सर का तापमान। अाजकल देश के ज़्यादातर शहरों में रोडरेज आम बात है, यानि गर्ममिज़ाजी। छोटी छोटी बात पर बहस लड़ाई का रूप ले लेती है, और अंजाम बुरा होता है। शहर में माहौल दूसरा होता है, हाइवे पर दूसरा। तो सुझाव यहीं दूंगा कि कार के साथ अपने दिमाग़ को भी ठंडा रखिए और निकल जाइए मस्त छुट्टियां मनाने।





इमर्जेंसी के लिए कार में क्या ज़रूरी ? 
फ़र्स्ट एड किट
ज़रूरी दवाईयां
जंपर केबल
जैक
रिपेयर टूल
रोड मैप
टॉर्च लाइट

Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है।

June 04, 2014

एक नए मेनिफ़ेस्टो की ज़रूरत



हर तरफ़ वादों और दावों के झंडे लहरा रहे हैं, बयानों और बहानों की बारिश हो रही है। ये मौसम है चुनावो का। जहां सभी ये जताने में लगे हैं कि आपकी फ़िक्र सबसे ज़्यादा की जा रही है, आपके एक वोट के लिए चांद तारे तोड़ कर लाने के वादे अब इतने पुराने हो गए हैं कि उन सबमें रोमांस बिल्कल ख़त्म हो गया है। अब सभी वोटर अपने अपने वोट को लेकर पहले कहीं ज़्यादा तैयार हैं, वोट के बदले में क्या मिल रहा है और क्या देना पड़ रहा है वो एक तौल रहे हैं। लेकिन अब ये कहने में भी कोई नयापन नहीं रह गया है कि अभी भी विचारधाराओं की लड़ाई के नाम पर वही स्कूली डिबेट चल रहा है जिसके पक्ष और विपक्ष में क्या क्या दलीलें देनी हैं वो युगों से नेता और जनता ने रट रखे हैं। वही आपको ट्विटर पर दिखेंग, वही फ़ेसबुक पर। तो ऐसे में, आज के वक्त में पॉलिटिक्स से अलग सोचना किसी भी उस इंसान के लिए मुश्किल है जो किसी भी तरीके के मीडिया से संपर्क में है। मास मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक। और पूरी बहस को देखते हुए मुझे लग रहा था कि कैसे इस बहस में वो मुद्दे अंट सकते हैं, जगह बना सकते हैं जो इतने सालों से नहीं बने। जिनकी वजह से एक तरफ़ तो लाख से ऊपर मरते हैं, लाखों घायल होते हैं, लाखों परिवार तबाह होते हैं और दूसरी ओर लोगों की बनावट को बदल रहा है, उन्हें आक्रामक बना रहा है और एक दूसरे के प्रति संवेदनहीन बना रहा है। 
 तो इस पूरी चर्चा के बीच लगता है कि एक और मेनिफ़ेस्टो है जिसके लिए जगह बनाने की ज़रूरत है। जिससे आने वाले वक्त मे देश की तस्वीर बेहतर हो। सड़क हादसों में हर साल जो सवा लाख से ज़्यादा लोग मारे जाते हैं, दुनिया में सबसे ज़्यादा लोग भारत में सड़कों पर दम तोड़ते हैं, एक ऐसा मेनिफ़ेस्टो जो उस कलंक को मिटाने की कोशिश करे। ये मेनिफ़ेस्टो है सड़क का मेनिफ़ेस्टो। 
लाइसेंस - सबसे पहले ज़रूरत है हमारी ड्राइविंग को ईमानदार बनाने की। देश के तमाम लाइसेंसिंग ऑथोरिटी में दलालों का कैसा साम्राज्य चलता है इसके बारे ना जाने कितनी बार लिखा-पढ़ा जा चुका है। लेकिन कैसे आसानी से बिना टेस्ट के लाइसेंस मिल जाते हैं, वो लाइसेंस जो किसी को भी सड़क पर गाड़ी लेकर जाने की इजाज़त दे देता है, चाहे वो मारुति ८०० या ऑल्टो है या फिर फ़ेरारी और लैंबोर्गिनी। चाहे ४० हॉर्सपावर की गाड़ी हो या ४०० की। चाहे स्प्लेंडर हो या हायाबूसा। और बिना ट्रेनिंग और बिना टेस्ट के मिले इस लाइसेंस का ख़तरा वैसा ही है जैसा कि बच्चे के हाथ में असल पिस्तौल देना है, बिना इसकी परवाह किए कि इससे किसी की जान जा सकती है। सोचिए कि जिस लाइसेंस के लिए कुछेक सौ रुपए एक्स्ट्रा देने के अलावा अगर और कुछ नहीं करना हो तो फिर उसकी अहमियत और ज़िम्मेदारी क्या रह जाएगा। जो सड़कों पर दिखता है, जहां ड्राइविंग की काबिलियत का कोई मापदंड नहीं है। सड़क पर नौसिखुए से लेकर एक्सपर्ट हर तरीके के ड्राइवर मिल जाते हैं। जो आम हालात में एक जैसी ड्राइविंग करते दिखेंगे, लेकिन जहां कुछ मुश्किल आई दोनों का रिएक्शन अलग होगा और नतीजा भी। चूंकि ये मामला सड़क का है तो ड्राइवर की बेवकूफ़ी का ख़ामियाज़ा केवल उस ड्राइवर को नहीं भुगतना पड़ता है। 
विदेशों में लाइसेंस मिलना एक उपलब्धि होती है, जिसके लिए बार बार फ़ेल होना भी आम बात है। यही नहीं कुछ सालों में फिर से टेस्ट लेकर लाइसेंस रिन्यू करना भी आम है। फिर ये भी होता है कि अलग अलग गाड़ियों या इंजिन क्षमता के लिए अलग लाइसेंस होते हैं। यानि ज़रूरी नहीं कि एक ही लाइसेंस से आप ऐक्टिवा भी चला सकें और डुकाटी भी। विडंबना यही है कि हमारे यहां वर्ल्ड क्लास प्रोडक्ट तो आ गए हैं लेकिन वर्ल्ड क्लास सेफ़्टी स्टैंडर्ड नहीं आए। तो ज़रूरत है हमारी लाइसेंिसंग व्यवस्था दुरूस्त हो। नए ज़माने के लिए, नई गाड़ियों के लिए बने। उन ऑफ़िसों से भ्रष्टाचार दूर हो। क्योंकि भ्रष्टाचार हमारी ज़िंदगी मुश्किल कर देता है, लेकिन लाइसेंस देने में भ्रष्टाचार ज़िंदगी मुश्किल नहीं, बल्कि ख़त्म कर देती है। तो क्या इस भ्रष्टाचार पर भी किसी पार्टी की नज़र जाएगी ?

पैदल - किसी यूरोप के शहर में टहलिए या जापानी सड़कों पर चलिए, ज़ेब्रा क्रॉसिंग से सड़क पार कीजिए। सामने से आने वाली गाड़ियों को देखिए, उनका रवैया देखिए। चलिए कई किलोमीटर तक। अगर आप गए हैं तो फिर कल्पना करने में कोई दिक़्कत नहीं, अगर नहीं गए हैं तो थोड़ा अपना तजुर्बा बता दूं। ज़्यादातर जगहों पर चलने वालों को तरजीह दी जाती है, फ़ुटपाथ का मतलब फ़ुटपाथ होता है, पैदल यात्रियों के लिए गाड़ियां रुकती हैं और अगर आप सड़क पार करे रहे हैं तो आपके लिए वो रुक जाएंगी, हम हिंदुस्तानियों के लिए आश्चर्य की एक और बात की वो ड्राइवर इशारा करेगा कि आप पहले पार कर लीजिए।  और फिर आईए वापस देश में। अब अपने अपने कॉलनी में चलिए, ऐसे ही फ़ुटपाथ पर चलने की कोशिश कीजिए, सड़क क्रॉस करने की कोशिश कीजिए और लंबी दूरी पैदल तय करने की कोशिश कीजिए। और अब अचानक लगेगा कि हमारे देश की सड़कें और ट्रैफ़िक व्यवस्था पैदल यात्रियों के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। देश के ज़्यादातर शहरों में ज़्यादातर सड़कों के फ़ुटपाथ पर लोगों ने क़ब्ज़ा कर रखा है। बड़ी सड़कों पर ये क़ब्ज़ा ठेलेवालों और रिक्शे वालों का रहता है तो कॉलनी के अंदर अपने आप को सभ्य कहने वालों का होता है। जिनकी कोठियों के सामने की सड़क कार पार्किंग के तौर पर इस्तेमाल होती है। यानि अगर आप पैदल चलने की कोशिश करते हैं तो आपको चलती और पार्क की गई गाड़ियों के बीच रास्ता खोजना पड़ता है। तो जो टहलना आराम के लिए होता, एक संघर्ष में तब्दील हो जाती है। और इस संघर्ष का मतलब ये कि आपको केवल रास्ता नहीं ढूंढना होता है, जान भी बचानी होती है। और पैदल यात्रियों की भारत में जितनी कम इज़्ज़त है वो शायद ही कहीं हो। गाड़ी वाले उनके लिए रुकेंगे क्या, कुचल कर निकल जाते हैं। हाल में दिल्ली में एक नौजवान पैदलयात्री की कुचल कर मौत हो गई थी। जिसमें एक चौंकानेवाली दलील ये सुनने को मिल रही थी कि उस नौजवान ने कान में हेडफ़ोन लगाया हुआ था और कार की हॉर्न नहीं सुन पाया और कुचला गया। बताइए, यानि पैदल यात्री के जान की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ उसकी ख़ुद की है, अगर उसने ग़लती की, हॉर्न नहीं सुना तो उसे अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। सवाल ये है कि पैदल यात्रियों के हक़ के लिए क्या कोई क़दम उठाया जाएगा ? 


साइकिल ट्रैक- दिलचस्प बात ये है कि एक राजनीतिक पार्टी का चुनाव चिन्ह है साइकिल। एक हद तक राज्य में सरकार बनाने तक का रास्ता भी तय किया है साइकिल पर चढ़ कर ही। ये एक प्रतीक है। वहीं आम ज़िंदगी में भी साइकिल की अहमियत बहुत ज़्यादा है। ग़रीबों की सवारी के तौर पर देखें तो भी और हम सबकी ज़िंदगी में साइकिलों की इमोशनल मौजूदगी के तौर पर भी। लेकिन साइकिल चलाना आजकी तारीख़ में जान पर खेलने वाली बात है। जो आंकड़े बता रहे हैं कि देश में सड़क हादसों में मारे जाने वाले लोगों में आधी संख्या पैदल यात्रियों और साइकिल सवारों की ही होती है। और जिस तरीके से सड़कों को कारों के लिए बना सिग्नल वाले रास्ते बनाने की कोशिशें चल रही हैं ऐसे में पैदल यात्री और साइकिल सवार पर ख़तरा और बढ़ा है। हालांकि ये दोनों ही वर्ग ऐसे हैं जिसमें आम लोग होते हैं, ग़रीब होते हैं, और उनकी ज़िंदगी की क़ीमत राजनीति में कम आंकी जाती है इसलिए अब तक उनकी सेफ़्टी के लिए गंभीरता नहीं दिखाई देती है। हां ये हादसे हेडलाइन तभी बन पाते हैं जब कोई बड़ा नाम इसमें शामिल होता है, चोट पहुंचाने वाले में या फिर चोट खाने वाले में। हाल में हमने देखा था सेंटर फ़ॉर साइंस एंड इनवायरन्मेंट की सुनीता नारायण का जब साइकिल चलाते वक्‍त एक्सिडेंट हुआ था। अख़बारों में ख़बरें देखी थीं मैंने। कहने का मतलब ये नहीं आम साइकिल सवार का ऐक्सिडेंट हो तो ख़बर छपे, सवाल ये है कि क्यों नहीं इस तबके के लिए सोचा जाए कि दुर्घटनाएं कमसेकम हो।
क़ानून- मैं क़ानून का जानकार नहीं लेकिन ये ज़रूर समझ सकता हूं कि जो क़ानून हैं भी उनका पालन नहीं हो रहा है। पालन इसलिए नहीं हो रहा है कि क्योंकि उसे लागू करने में कोताही बरती जाती है। कोताही क्यों बरती जाती है ये सवाल ऐसा है जिस पर थिसीस लिखी जा सकती है। लेकिन इस कोताही से क्या कुछ हो रहा है ये अब दिख तो रहा है लेकिन इसकी गंभीरता समझी नहीं जा रही है। रेड लाइट जंप करने पर, ग़लत ओवरटेक करने पर, ओवरस्पीड करने पर इन सभी मौक़ों पर जब आराम से छूट जाते हैं, ज़्यादातर मौक़ों पर कोई देखनेवाला नहीं होता है, कुछेक मौक़ो पर १००से ४०० रु में छूट जाते हैं। या फिर किसी एक बच्ची को अपनी गाड़ी से कुचल देते हैं जिसके स्कूल का पहला दिन होता है, और उसके पिता को भी जो अपनी बेटी को स्कूल बस में पहले दिन जाते देखने की ख़्वाइश के साथ सुबह उठ कर आया था, जो गुड़गांव के एक अस्पताल में दिल का डॉक्टर भी था। और दोनों की जान लेने के बाद कुछ घंटों में अगर ड्राइवर को बेल मिल जाए, और वो ज़मानत पर छूट आए। ये सब देखकर यही लगता है कि यहां आप कुछ भी करके निकल सकते हैं, सब चलता है। 
अपनी बेटी और पति को एक साथ खोने के ग़म में जो महिला सदमे में चली जाती है, शायद हर साल सवा लाख परिवार भी ऐसे ही सदमे में चले जाते होंगे, जिनका अपना घर वापस नहीं आता होगा। लेकिन बाकी के हम लोग सदमे में नहीं जाते हैं। देश सदमे में नहीं जाता। सवाल यही है कि इस सदमे की आदत कब जाएगी ? 

Ctrl+C और Ctrl+V ना करें । कहीं ना कहीं छपी हुई है।
(published before 2014 elections I guess..)