September 30, 2014

ये दिल्ली दिलवालों की नहीं...

इस नई दिल्ली से बाहर वालों को नहीं ख़ुद यहां के बाशिंदों को अब डर लग रहा है। अमीर बाप के बिगड़े औलादों से और बिगड़े बाप के अमीर औलादों से भी। 

घटना नंबर एक। 
पिछले शनिवार को मूलचंद के पास के पेट्रोल पम्प पर गाड़ी में तेल भरवाने गया। शनिवार की शाम का वक़्त जब पेट्रोल पंपों पर रौनक़ लगी रहती है। जहाँ दिल्ली के पार्टी पीपल क़रीने से कपड़ों में इस्त्री करके, बालों को सँवार कर, सँभल कर गाड़ियों में तेल भरवाते दिखाई देते हैं। जिससे वीकेंड के उनके पार्टी प्लान पर तेल के छींटें या ग्रीज़ का दाग़ ना लगे। कौरेस्पोंडेंस कोर्स से फ़ैशन की पढ़ाई करने वालों के लिए अच्छी जगह हो सकती है, समझने के िलए कि आजकल पोलो पैंट चल रहा है कि जोधपुरी। आई शैडो के शेड पर शोध की भी गुंजाइश। लेकिन मेरे पास काम था। तो जल्दी वापस ऑफ़िस जाना था। ख़ैर, मेरी कार की बारी भी आई, तेल भराने लगा। और इसी बीच अचानक तू-तू मैं-मैं की आवाज़ सुनाई दी। मैंने भी तेल भरने वाली मशीन के मीटर से अपना ध्यान तुरंत उस कोने पर लगा दिया जिधर चिल्लपों मचा हुआ था। लेकिन किसी असली ऐक्शन नहीं दिख रहा था क्योंकि ये सब हवा भरवाने वाली लाइन में हो रहा था और वो ओट में था। और फिर हाथापाई-थप्पड़ की भी आवाज़ सुनाई दी। ऐसे में तेल भरवाने वाले सभी ड्राइवर, भरने वाले सभी कारिंदे लालायित हो गए कि जल्दी से लड़ाई देखने के लिए बढ़ा जाए। एक नए तमाशे की उम्मीद से भरे थे हम सब। लेकिन जबतक मैं आगे बढ़ा, मामला मद्धम सा लगा। देखा एक टैक्सी ड्राइवर, अपनी इनोवा की खिड़की के रास्ते उतरने की कोशिश सा करता, आधे मन से चिल्लाता-गलियाता लगा। शायद उसी को थप्पड़ पड़ा। लेकिन दूसरी पार्टी नज़र नहीं आ रही थी। कि अचानक दिल्ली का फ़ेवरेट मौलिक आध्यात्मिक प्रश्न गूँजा- "तू जानता नहीं मैं कौन हूँ " और ये उसी ड्राइवर को संबोधित लगा। घूम कर देखा तो एक स्मार्ट सा आदमी हाथ में चमकती रिवोल्वर लहराता ये उद्घोष कर रहा था, चमकती-नक्काशी की हुई रिवॉल्वर। जो उस आदमी के फ़ैशन से मेल खाता लग रहा था, डिज़ाइनर दिल्ली वाले की डिज़ाइनर रिवॉल्वर। जिसे उस शख़्स ने अपनी पैंट में पीछे खोंसा और फिर सफ़ेद ह्युंडै में बैठ गया। और मैं आधे सेकेंड के लिए सोच में पड़ा कि आख़िर टायर में हवा भरवाने को लेकर क्या ऐसा बवाल हो सकता है कि कोई रिवॉल्वर निकाले? फिर मेरे पीछे वाले लोगों ने हॉर्न बजाना शुरू किया तो मैं भी आगे निकल गया।  
घटना नंबर दो। 
फिर से मैं पेट्रोल पंप पर। और इस बार मैं कार लेकर लाइन में खड़ा हुआ, हवा भरवाने के लिए । ये ग्रेटर कैलाश का इलाक़ा, शहर का पॉश, अमीर, पढ़ा लिखा इलाक़ा, लेकिन संभ्रांत ? नहीं । वो इलाक़ा जहां पर कारें पेट्रोल डीज़ल पर नहीं अहंकार पर चलती हैं। दिल्ली के कई संपन्न इलाक़ों की तरह यहां भी पढ़े-लिखे अनपढ़ की अवधारणा को समझा जा सकता है। तो इस पेट्रोल पंप पर क़तार में मेरे से आगे एक बुज़ुर्ग थे। उम्र काफ़ी लेकिन छरहरे, फ़िट से। रिटायर्ड आर्मी टाइप के लग रहे थे। और वो बड़े करीने से कार से उतर कर, चारों टायरों में हवा भरवाने के अलावा कार की डिक्की खोलकर भी खड़े थे कि स्टेपनी में भी हवा भरवा लें। और तुरंत पीछे एक सफ़ेद बीएमडब्ल्यू कार आकर रुकी। और अपनी तेज़ आवाज़ वाली कर्कश हॉर्न को दबाया। जिसे दिल्लीवालों की आदत समझ कर नज़रअंदाज़ किया जा सकता था। यहां पर वैसे भी ब्रेक दबाते ही लोग हॉर्न बजाते हैं। लेकिन उस ड्राइवर ने फिर से बजाया। आमतौर पर ड्राइवरों को इतनी जल्दी होती है लेकिन मैंने शीशे में देखा कि अपनी गर्लफ़्रेंड के साथ बैठा नौजवान उस बुज़ुर्ग की रफ़्तार से उकता कर हॉर्न बजा रहा है। मतलब कह रहा है कि जल्दी बढ़ो आगे। उसे कहीं पहुंचने की जल्दी थी या नहीं पता नहीं। लेकिन उसे इस क़तार में नहीं खड़ा होना था। उसे इंतज़ार नहीं करना था। 
घटना नंबर तीन। 
रात के एक बजे ऑफ़िस से घर के लिए निकला और ग्रेटर कैलाश के एन ब्लॉक के बाज़ार सामने से गुज़र रहा था। आमतौर पर शुक्र शनि की रात काफ़ी रौनक होती है इस सड़क पर जब मैं निकल रहा होता हूं। और रौनक के जितने मतलब निकाले जा सकते हैं वो सब यहां देखने को मिलता है। वो वक्त जब पब और रेस्त्रां बंद होने के बाद पार्टी-पीपल निकल रहे होते हैं, कुछ सड़क पर झूम रहे होते हैं जिनसे बच कर गाड़ी निकालनी होती है साथ में उनसे भी जो अपनी कारों को झुमा रहे होते हैं। कई रात पुलिस वालों के साथ तू-तू मैं मैं भी देखने को मिलता है। ख़ैर जिस ख़ास रात के बारे में मैं ज़िक्र कर रहा था उस रात ऐसे ही गुज़रते हुए फिर से गालियों की गूंज सुनाई दी और कारों की रुकी क़तार के आगे से आ रही थी। और आगे बढ़ने पर देखा कि इस बार एक ऑडी कार की खिड़की से सर निकाले नौजवान गालियां बक रहा है और ये थी सामने उल्टी तरफ़ से आती ऑल्टो कार के लिए, जिसमें एक बुज़ुर्ग जोड़ी थी, सकपकाई सी। पता नहीं ग़लती किसकी थी कि दोनों कारें ऐसे आमने सामने फंसी थीं, लेकिन ६० से ऊपर के उस जोड़े को,इतनी देर रात ऐसी सड़क पर देखकर किसी को भी दया आ जाए। 

ये दिल्ली है। और जितना ज़्यादा वक़्त सड़कों पर ड्राइव करते गुज़र रहा है, उसके बाद यही लग रहा है कि यही दिल्ली है। जहां सड़कों पर एक मान्यता प्राप्त जंगल राज है, जो क़ानून व्यवस्था के दायरे से दूर, यहां के लोगों के मनों में है। जो ट्रेंड उन हादसों से भी ज़्यादा हिंसक लगने लगे हैं जिनमें दरअसल दो हज़ार दिल्ली वाले अपनी जान गंवा देते हैं। वैसे ही मुंबई-बैंगलोर के दोस्त दिल्ली की बेरुख़ी और अग्रेशन से डरते-मज़ाक उड़ाते हैं, अब तो हालत और ख़राब होती लग रही है।  वो उजड्डपना और लंपटपना जो मारुति-ह्युंडै, बीएमडब्ल्यू-ऑडी, प्राइवेट और टैक्सी की सीमाओं को पार करता एक जैसा पूरे शहर पर पकड़ बना रहा है। जिसे रोड रेज के नाम से जाना जा रहा है, वो रेज जो रोज़ की बात हो गई है। जहां-तहां बीच सड़क पर रुकती गाड़ियां और फिर  उनमें से आस्तीन समेटते निकलते लोगों की आपस में बहसबाज़ी और गाली गलौज होते देखना दिल्लीवालों की आदत बन गई है। कई हॉर्न दबा कर बैठ जाते हैं, और उस प्रेशर हॉर्न की आवाज़ भी कम लगने लगती है तो फिर  चिल्लाने भी लग रहे हैं। अपने दोस्तों सहकर्मियों से ज़िक्र करो तो उनका एक ही डर होता है कि पता नहीं किस बात पर लोग बंदूक निकाल लें। बुज़ुर्ग, महिला या बच्चों की मौजूदगी भी नहीं शांत करती है इन लोगों को। 'दिल्ली दिलवालों की’ जैसे जुमले पहले भी शक के घेरे में थे अब तो और भी बेमानी लगते हैं। इस बेदिली का कोई भी मोटर वेह्किल ऐक्ट हार्ट ट्रांसप्लांट नहीं कर सकता । इस नई दिल्ली से बाहर वालों को नहीं ख़ुद यहां के बाशिंदों को अब डर लग रहा है। अमीर बाप के बिगड़े औलादों से और बिगड़े बाप के अमीर औलादों से भी।